जब हनुमान ने तीनों का घमण्ड चूर किय – When Hanuman shattered the pride of all three
संसार में किसी का कुछ नहीं|
ख्वाहमख्वाह अपना समझना मूर्खता है, क्योंकि अपना होता हुआ भी, कुछ भी अपना नहीं होता|
इसलिए हैरानी होती है, घमण्ड क्यों?
किसलिए?
किसका?
कुछ रुपये दान करने वाला यदि यह कहे कि उसने ऐसा किया है, तो उससे बड़ा मुर्ख और कोई नहीं और ऐसे भी हैं, जो हर महीने लाखों का दान करने हैं, लेकिन उसका जिक्र तक नहीं करते, न करने देते हैं|
वास्तव में जरूरतमंद और पीड़ित की सहायता ही दान है, पुण्य है|
ऐसे व्यक्ति पर सरस्वती की सदा कृपा होती है|
पर क्या किया जाए, देवताओं तक को अभिमान हो जाता है और उनके अभिमान को दूर करने के लिए परमात्मा को ही कोई उपाय करना पड़ता है|
गरुड़, सुदर्शन चक्र तथा सत्यभामा को भी अभिमान हो गया था और भगवान श्रीकृष्ण ने उनके अभिमान को दूर करने के लिए श्री हनुमान जी की सहायता ली थी|
श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात लाकर दिया था और वह इसीलिए अपने आपको श्रीकृष्ण की अत्यंत प्रिया और अति सुंदरी मानने लगी थी|
सुदर्शन चक्र को यह अभिमान हो गया था कि उसने इंद्र के वज्र को निष्क्रिय किया था|
वह लोकालोक के अंधकार को दूर कर सकता है|
भगवान श्रीकृष्ण अतंत उसकी ही सहायता लेते हैं|
गरुड़ भगवान कृष्ण का वाहन था, वह समझता था, भगवान मेरे बिना कहीं जा ही नहीं सकते|
इसलिए कि मेरी गति का कोई मुकाबला नहीं कर सकता|
भगवान अपने भक्तों का सदा कल्याण करते हैं|
इसलिए उन्होंने हनुमान जी का स्मरण किया|
तत्काल हनुमान जी द्वारिका आ गए|
जान गए कि श्रीकृष्ण ने क्यों बुलाया है|
श्रीकृष्ण और श्रीराम दोनों एक ही हैं, वह यह भी जानते थे|
इसीलिए सीधे राजदरबार नहीं गए कुछ कौतुक करने के लिए उद्यान में चले गए|
वृक्षों पर लगे फल तोड़ने लगे, कुछ खाए, कुछ फेंक दिए, वृक्षों को उखाड़ फेंका, कुछ तो तोड़ डाला… बाग वीरान बना दिया|
फल तोड़ना और फेंक देना, हनुमान जी का मकसद नहीं था… वह तो श्रीकृष्ण के संकेत से कौतुक कर रहे थे… बात श्रीकृष्ण तक पहुंची, किसी वानर ने राजोद्यान को उजाड़ दिया है… कुछ किया जाए|
श्रीकृष्ण ने गरुड़ को बुलाया|
“कहा, “जाओ, सेना ले जाओ|
उस वानर को पकड़कर लाओ|
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”
गरुड़ ने कहा, “प्रभु, एक मामूली वानर को पकड़ने के लिए सेना की क्या जरूरत है?
मैं अकेला ही उसे मजा चखा दूंगा|
” कृष्ण मन ही मन मुस्करा दिए… “जैसा तुम चाहो, लेकिन उसे रोको|
” जाकर… वैनतेय गए|
हनुमान जी को ललकारा, “बाग क्यों उजाड़ रहे हो?
फल क्यों तोड़ रहे हो?
चलो, तुम्हें श्रीकृष्ण बुला रहे हैं|
”
हनुमान जी ने कहा, “मैं किसी कृष्ण को नहीं जानता|
मैं तो श्रीराम का सेवक हूं|
जाओ, कह दो, मैं नहीं आऊंगा|
”
गरुड़ क्रोधित होकर बोला, “तुम नहीं चलोगे तो मैं तुम्हें पकड़कर ले जाऊंगा|
” हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया… गरुड़ की अनदेखी कर वह फल तोड़ने रहे|
गरुड़ को समझाया भी, “वानर का काम फल तोड़ना और फेंकना है, मैं अपने स्वभाव के अनुसार ही कर रहा हूं|
मेरे काम में दखल न दो|
क्यों झगड़ा मोल लेते हो, जाओ… मुझे आराम से फल खाने दो|
”
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गरुड़ नहीं माना… तब हनुमान जी ने अपनी पूंछ बढ़ाई और गरुड़ को दबोच लिया|
उसका घमंड दूर करने के लिए कभी पूंछ को ढीला कर देते, गरुड़ कुछ सांस लेता, और जब कसते तो गरुड़ के मानो प्राण ही निकल रहे हो… हनुमान जी ने सोचा… भगवान का वाहन है, प्रहार भी नहीं कर सकता|
लेकिन इसे सबक तो सिखाना ही होगा|
पूंछ को एक झटका दिया और गरुड़ को दूर समुद्र में फेंक दिया|
बड़ी मुश्किल से वह गरुड़ दरबार में पहुंचा… भगवान को बताया, वह कोई साधारण वानर नहीं है… मैं उसे पकड़कर नहीं ला सकता|
भगवान मुस्करा दिए – सोचा गरुड़ का घमंड तो दूर हो गया… लेकिन अभी इसके वेग के घमंड को चूर करना है|
श्रीकृष्ण ने कहा, “गरुड़, हनुमान श्रीराम जी का भक्त है, इसीलिए नहीं आया|
यदि तुम कहते कि श्रीराम ने बुलाया है, तो फौरन भागे चले आते|
हनुमान अब मलय पर्वत पर चले गए हैं|
तुम तेजी से जाओ और उससे कहना, श्रीराम ने उन्हें बुलाया है|
तुम तेज उड़ सकते हो… तुम्हारी गति बहुत है, उसे साथ ही ले आना|
”
गरुड़ वेग से उड़े, मलय पर्वत पर पहुंचे|
हनुमान जी से क्षमा मांगी|
कहा भी… श्रीराम ने आपको याद किया है, अभी आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर मिनटों में द्वारिका ले जाऊंगा|
तुम खुद चलोगे तो देर हो जाएगी|
मेरी गति बहुत तेज है… तुम मुकाबला नहीं कर सकते|
हनुमान जी मुस्कराए… भगवान की लीला समझ गए|
कहा, “तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूं|
”
द्वारिका में श्रीकृष्ण राम रूप धारण कर सत्यभामा को सीता बना सिंहासन पर बैठ गए… सुदर्शन चक्र को आदेश दिया… द्वार पर रहना… कोई बिना आज्ञा अंदर न आने पाए… श्रीकृष्ण समझते थे कि श्रीराम का संदेश सुनकर तो हनुमान जी एक पल भी रुक नहीं सकते… अभी आते ही होंगे|
गरुड़ को तो हुनमान जी ने विदा कर दिया और स्वयं उससे भी तीव्र गति से उड़कर गरुड़ से पहले ही द्वारका पहुंच गए|
दरबार के द्वार पर सुदर्शन ने उन्हें रोक कर कहा, “बिना आज्ञा अंदर जाने की मनाही है|
” जब श्रीराम बुला रहे हों तो हनुमान जी विलंब सहन नहीं कर सकते… सुदर्शन को पकड़ा और मुंह में दबा लिया|
अंदर गए, सिंहासन पर श्रीराम और सीता जी बैठे थे… हुनमान जी समझ गए… श्रीराम को प्रणाम किया और कहा, “प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?
” साथ ही कहा, “प्रभु मां कहां है?
आपके पास आज यह कौन दासी बैठी है?
सत्यभामा ने सुना तो लज्जित हुई, क्योंकि वह समझती थी कि कृष्ण द्वारा पारिजात लाकर दिए जाने से वह सबसे सुंदर स्त्री बन गई है… सत्यभामा का घमंड चूर हो गया|
उसी समय गरुड़ तेज गति से उड़ने के कारण हांफते हुए दरबार में पहुंचा… सांस फूल रही थी, थके हुए से लग रहे थे… और हनुमान जी को दरबार में देखकर तो वह चकित हो गए|
मेरी गति से भी तेज गति से हनुमान जी दरबार में पहुंच गए?
लज्जा से पानी-पानी हो गए|
गरुड़ के बल का और तेज गति से उड़ने का घमंड चूर हो गया… श्रीराम ने पूछा, “हनुमान ! तुम अंदर कैसे आ गए?
किसी ने रोका नहीं?
”
“रोका था भगवन, सुदर्शन ने… मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा… इसलिए उनसे उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुंह में दबा लिया था|
” और यह कहकर हनुमान जी ने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के चरणों में डाल दिया|
तीनों के घमंड चूर हो गए|
श्रीकृष्ण यही चाहते थे|
श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को गले लगाया, हृदय से हृदय की बात हुई… और उन्हें विदा कर दिया|
परमात्मा अपने भक्तों में अपने निकटस्थों में अभिमान रहने नहीं देते|
श्रीकृष्ण सत्यभामा, गरुड़ और सुदर्शन चक्र का घमंड दूर न करते तो परमात्मा के निकट रह नहीं सकते थे… और परमात्मा के निकट रह ही वह सकता है जो ‘मैं’ और ‘मेरी’ से रहित है|
श्रीराम से जुड़े व्यक्ति में कभी अभिमान हो ही नहीं सकता… न श्रीराम में अभिमान था, न उनके भक्त हनुमान में, न श्रीराम ने कहा कि मैंने किया है और न हनुमान जी ने ही कहा कि मैंने किया है… इसलिए दोनों एक हो गए… न अलग थे, न अलग रहे|
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