विज्ञान और धर्म – Science And Religion
विज्ञान और धर्म, समान्यताया बल्कि संपूर्णतया दोनों के क्षेत्र अलग-अलग हैं। ‘धरायते इति धर्म:’ इस उक्ति के अनुसार धर्म वह है, जिसमें समस्त उदात्त, उदार और महान मानवीय वृत्तियों, सदगुणों को धारण करने की अदभुत क्षमता विद्यमान रहती है। इस दृष्टि से धर्म का कोई स्थल एंव निर्धारित स्वरूप नहीं होता। अपने-आपमें वह मात्र एक पवित्र एंव सूक्ष्म हमेशा विकास करती रहने वाली भावना है। जीवन जीने की एक आस्था और विश्वास है। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास या रोजा-नमाज जैसे ब्रह्माचार भी धर्म नहीं है। इन्हें धर्म के सतस्वरूप को पाने, उन तक पहुंचने का एक भावनात्मक बाह्य माध्यम अवश्य कहा जा सकता है। धर्म का वास्तविक संबंध जाति-पाति या मजहब के साथ भी नहीं हुआ करता। ये सब तो कानव को बाह्य स्तर पर विभाजित करने वाली स्थूल क्यारियां मात्र हैं। धर्म है पवित्र आचरण एंव व्यवहार का नाम। धर्म है सत्य भाषण, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम एंव अपनत्व का नाम। धर्म है सभी प्रकार के सदभावों और सदगुणों का नाम। इसके अतिरिक्त यदि किसी अन्य चीज को धर्म कहा जाता है, तो वह प्रवंचना और छलावे से अधिक कुछ नहीं। रूढिय़ां, अंधविश्वास, या अंधविश्वास, या अंधपरंपराएं भी धर्म नहीं हुआ करतीं। तभी तो प्रत्येक देश-काल के महापुरुषों ने इनका विरोध कर एकात्मभाव जगाने का काम किया है। वह एकात्मक भाव की मानवीय दृष्टि से आध्यात्मिक जागृति ही वस्तुत: धर्म कही जा सकती है।
धर्म एक गुलाब का फूल है, जो प्रत्येक प्राणी के मन की वाटिका में कोमल-कांत भावना के रूप में विकसित होकर सौंदर्य-सुगंध प्रदान किया करता है। वस्तुत: गुलाब की पंखुडिय़ां नहीं, उनमें छिपी कोमलता, सुंदरता और सुगंधि धर्म हुआ करती है। इसके विपरीत विज्ञान का अर्थ है-विशेष प्रकार का स्थूल ज्ञान, जो हमें भौतिक तत्वों की जानकारी कराता है, भौतिकता की ओर अग्रसर करके उसी की उपलब्धियां प्रदान करता है। बाह्य भौतिक तत्वों-पदार्थों को ही सब-कुछ मानता है। जो दृश्य है, जिसे छुआ, नामा तोला या गणित की परिधियों में लाया जा सकता है, वही विज्ञान का सत्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विज्ञान का संबंध स्थूलसत्य के साथ है, मस्तिष्क के साथ है, सूक्ष्म और भावना के सत्य के साथ नहीं है। वह तो धर्म और संस्कृति का विहार-क्षेत्र है। धर्म और विज्ञान दोनों का जीवन जीने-बल्कि ढंग से जीवन जीने के लिए समान आवश्यकता और महत्व है। दोनों मानव-जीवन की महान उपलब्धियां हैं। दोनों सत्य तक पहुंचने-पहुंचाने के मार्ग है, पर अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने स्थूल-सूक्ष्म साधनों और माध्यमों से। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। इन्हें स्वीकार करके ही वस्तु एंव भाव-सत्य को अर्थात धर्म और विज्ञान के वास्तविक मर्म को पाया जा सकता है।
अपने सहज-स्वाभाविक स्वरूप और प्रक्रिया में धर्म और विज्ञान दोनों मानव के शुभचिंतक एंव हित-साधक हैं। दूसरी ओर दोनों का सीमातिक्रमण, अतिवादी रूप मानव को समस्त गतियों-प्रगतियों को विनष्ट करके रख देने वाला है। तभी तो जब धर्म के अतिचार से व्यक्ति पीड़ा अनुभव करने लगता है, वह विज्ञान ही उसे आश्रयस्थल दिखाई देता है। जब विज्ञान का अत्याचार बढ़ जाता है, तब विवश मानव को धर्म का मुखापेक्षी बनना पड़ता है।श्ुारू से ही यही हुआ और निरंतर होता आ रहा है। धर्म क्योंकि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है, इसी कारण पश्चिम के वैज्ञानिक अतिवाद से पीडि़त मानव-समाज आज धर्म एंव आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होकर निवृति का मार्ग पा रहा है। पूर्व धार्मिक अतिवादों से उत्पीडि़त होकर विज्ञान की शरण में आश्रय-स्थल खोजने की मानसिकता में है। कहा जा सकता है कि मानव के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही समान महत्वपूर्ण हैं दोनों ही आश्रय-आधारदाता हैं। अत: दोनों के समन्वय से बना दृष्टिकोण ही आज की परिस्थितियों में मानव का हित-साधन कर सकता है, यह एक निभ्रांत एंव सर्वमान्य सत्य है।
यह भी एक तथ्य है कि धर्म की दृष्टि शायद उनती लोक पर नहीं रहती, जितनी की परलोक और परा प्राकृतिक या अलौकिक तत्वों-शक्तियों पर। इसी कारण कई बार लौकिक व्यावहारिकता से निश्ंिचत होकर धर्म का स्वरूप और व्यवहार पागलपन की सीमा तक उन्मादक और अव्यावहारिक हो जाया करता है। वह अनेक प्रकार के अंध जनूनों का शिकार होकर जीवित मानवता को नहीं, बल्कि अलक्षित जड़ तत्वों को महत्व देने लगता है। तथाकथित विश्वासों-रूढिय़ों का अंधभक्त बनकर अपनी झूठी श्रेष्ठता के दंभ में दूसरों के लिए घातक बन जाया करता है। इन्हीं स्थितियों को अंधविश्वास, धार्मिक रूढि़वादिता या धर्मोन्माद कहा जाता है। तब व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की पीठ-पेट में छुरा तक घोंपने से बाज नहीं आता। ऐसे समय में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के कार्यों का याद आना स्वाभाविक हो जाया करता है। तब विज्ञान ही वस्तु-सत्य का अहसास कराकर, सही दृष्टि और व्यवहार अपनाने की उदात्त प्रेरणा दिया करता है। यही कारण है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की प्रगतियों ने बहुत सारी परंपरागत रूढिय़ों और अंधविश्वासों से मानव को मुक्ति दिलाकर उसे उदात्त मानवीय दृष्टिकोण और व्यवहार अपनाने की दृष्टि एंव प्रेरणा दी है। सभी प्रकार की प्रत्यक्ष-परोक्ष गहन मानवीय अनुभूतियों को तथ्य-परक बनाया है। उसने सीमित क्षेत्रों का विस्तार किया है। अंध रूढिय़ों और विश्वासों की जकड़से मानवता को मुक्त करवाया है। इस दृष्टि से यह ठीक ही कहा जाता है कि विज्ञान की प्रत्येक नई खोज धर्म के मुख पर एक करारी चपत होती है। हम इस युक्ति को सुधारकर यों कह सकते हैं कि विज्ञान की प्रत्येक नई खोज अंध रूढिय़ों और अंध-विश्वासों से ग्रस्त धर्म-चेतना के मुख पर एक करारी चपत हुआ करती है। ऐसा कहना है उचित एंव सार्थक है।
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जिस प्रकार अनेक बार कट्टर धर्म-भक्ति ने मनुष्य को अंधा और घातक बनाया है, उसी प्रकार विज्ञान ने भी कई बार ऐसा किया और आज भी कर रहा है। जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम-विस्फोट, नए-नए घातक शस्त्रास्त्रों का निर्माण हो रहा है, उनके बल पर निर्बल और छोटे राष्ट्रों को दबाने के प्रयत्न चल रहे हैं, इस सबको वैज्ञानिक अंधता ही तो कहा जाएगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार, मध्यकाल में धर्मान्धता से पीडि़त होकर साम्राज्य या देश उजाड़े एंव बसाए जाते थे। स्पष्ट है कि धर्म और विज्ञान दोनों ही जब अपने सहज मानवीय लक्ष्यों से भटक जाते हैं, तब उनकी स्थिति अंधे और वह भी सनकी एंव पागल अंधे के समान ही हो जाया करती है।
सत्य तो यह है कि जब हम गंभीरता से विचार करके देखते हैं, तो पाते हैं कि अपने-आप में न तो धर्म अंधा हुआ करता है और न विज्ञान ही। अंधा तो वास्तव में इनका उपयोग-उपभोग करने वाला मानव हो जाया करता है। कभी अपनी श्रेष्ठता के मद में और कभी अपनी साधना-संपन्नता के मद में। इस प्रकार के मदों में अंधा होकर जब वह दूसरों पर भी प्रभावी होने का प्रयत्न करने लगता है, तब धर्म और विज्ञान दोनों की प्रगतियों, गतिविधियों और अस्तित्व के वास्तविक उद्देश्यों का अंत हो जाया करता है। तब दोनों ही मानवता को विनाश की विभीषिका ही दे पाते हैं। आज के संदर्भों में धर्म और विज्ञान दोनों के क्षेत्रों में यही सब तो हो रहा है।
प्रश्न उठता है कि तब क्या किया जाए?
उत्तर एक ही है और हो भी सकता है। वह यह है कि धर्म को विज्ञानाभिमुख और विज्ञान को धर्माभिमुख बनाया जाए। इस प्रकार का समन्वय और संतुलन ही अपने सत्स्वरूप में दोनों को मानव के लिए कल्याणकारी एंव मंगलप्रद बनाए रख सकता है। अन्यथा भौतिकता की अंधी दौड़ में आज का मानव-जीवन जिन विस्फोटक कगारों की तरफ सरपट दौड़ा जा रहा है, धर्म और विज्ञापन दोनों ही वहां उसके विनाशक ही सिद्ध हो सकते हैं, संरक्षक एंव प्रगतिदाता नहीं। इस तथ्य को जितना शीघ्र समझ लिया जाए, उतना ही लाभप्रद और कल्याणकारी हो सकता है। बाद में पश्चाताप के सिवा कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं।
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