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कर्म-प्रधान विश्व रचि राखा – Created A Karma-Oriented World

‘कर्म-प्रधान विश्व रचि राखा’ यह उक्ति श्रीमदभगवद गीता के इस सिद्धांत या कर्मवाद सिद्धांत पर आधारित है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:’ अर्थात इस संसार में बिना फल या परिणाम की चिंता किए निरंतर कर्म करते रहना ही मानव का अधिकार अथवा मानव के वश की बात है। दूसरे रूप में इस कथन की व्याख्या इस तरह भी की जा सकती है-फल की चिंता किए बिना जो व्यकित अपने उचित कर्तव्य-कर्म करतारहता है, उसे अपने कर्म के अनुसार उचित फल अवश्य मिलता है। अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे कर्मों का अवश्यंभावी बुरा फल या परिणाम, यही मानव-नियति का अकाटय विधान है। इस कर्मवाद के सिद्धांत के विवेचन से जो संकेतार्थ या ध्वन्यार्थ प्राप्त होता है, वह यह कि विधाता ने संसार को बनाया ही कर्म-क्षेत्र और कर्म-प्रधान है। जो व्यक्ति मन लगाकर अपना निश्चित कर्तव्य कर्म करता जाता है, अंत में सफल, सुखी और समृद्ध वही हुआ करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति भाज्य के सहारे बैठे रहते हैं, तनिक-सी असफलता पर भाज्य का अर्थात भाज्य खराब होने का रोना रोने लगते हैं, जिनमें अपने मन पर काबू नहीं, कर्म के प्रति निष्ठा और समर्पण -भाव नहीं, आत्मविश्वास नहीं हुआ करता, वे निरंतर असफलता का ही सामना किया करते हैं। उन्हें भूल जाना चाहिए कि कभी वे लोग सुख-शांति और स्वाभाविक समृद्धि के पास तक भी फटक सकेंगे।

संसार में कर्म ही प्रधान है कर्म ही सच्ची पूजा और तपस्या है। कर्म में लीनता ही सच्ची और वास्तविक समाधि-अवस्था है। जिसकी जीवन-दृष्टि और चेष्टा एकाग्र होकर कर्मरूपी चिडिय़ा पर टिकी रहा करती है। वह अर्जुन की तरह निशाना साधकर महारथी एंव महान सफल योद्धा या व्यक्ति होने का गौरव प्राप्त कर सकता है। एक कहावत है कि ‘आप न मरिए, स्वर्ग न जाइए’, अर्थात स्वर्ग में जाने के लिए पहले स्वंय मरना आवश्यक है। जो आप मरता नहीं, वह स्वर्ग में नहीं जा सकता। इस कहावत का निहितार्थ यही है कि सुख-समृद्धि का स्वर्ग पाने के लिए पहले निरंतर कर्म करते हुए अपने को, अपने अहं और व्यक्तित्व को मिट्टी में मिला देना आवश्यक है। कविवर राजेश शर्मा की दो काव्य-पंक्तियां यहां उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकती हैं। देखिए-

‘हर भावअभावों की दलदल में पलता है

ज्यों बीज सदा मृत्पिंडों में ही फलता है।’

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नन्हें से बीज को पेड़ या पौधा बनकर हरियाली, फूल-फल की समृद्धि तक पहुंचने के लिए पहले मिट्टी में मिलकर अपने-आपको भी मिट्टी बना देना पड़ता है। तभी उसे वह सब मिल जाता है, जिसकी अप्रत्यक्ष चाह उसके फलने-फूलने के रूप में सूक्ष्मत:उसके भीतर छुपी रहा करती है। उस चाह को साकार करने के लिए भी वनमाली या किसान को पहले एक लंबी कर्म-श्रंखला से गुजरना पड़ता है, तब कहीं जाकर वह इच्छा फलीभूत हो पाती है। यह प्रकृति का अकाटय नियम और विधान है।

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नन्हीं चिडिय़ां और चींटियां तक जीवन जीने के लिए संघर्ष करती हुई देखी जा सकती है। सुबह-सवेरे जागकर चिडिय़ां अपनी मधुर चहकार से सारी प्रकृति को जगा और गुजायमान कर दाना-दुनकर चुगने निकल पड़ती हैं। यही उनका पुरुषार्थ या कर्म है। इसी प्रकार चींटी अपने से भी बड़ा चावल या गेहूं का दाना अपने दांतों में समेटे सारे अवरोधों को पार करती हुई जीवनके कठोर कर्म करती देखी जा सकती है। संसार के अन्य प्राणी भी इसी प्रकार, अपनी स्थिति और शक्ति के अनुसार विधाता द्वारा प्रदत्त कर्म करते हुए देखे जा सकते हैं। इसके बिना छोटे-बड़े किसी भी प्राणी का गुजारा जो नहीं चल सकता! हवा का गतिमान रहना, नदियों का बहते हुए आगे ही आगे बढ़ते चलना , अज्नि का जलना-दहकना आदि सभी जड़ कहे-माने जाने वाले प्राकृतिक पदार्थ भी तो प्रकृति-प्रदत्त कर्म करते हैं। ऐसा करते हुए वे अपने अस्तित्वावें को खपा और मिटा दिया करते हैं। ऐसा करने में ही उनकी गति और सफलता है। कर्म की प्रधानता के कारण ही कर्मशील व्यक्तियों को ‘कर्मठ’ जैसे शब्दों द्वारा अलंकृत एंव सम्मानित किया जाता है। कर्महीनता वास्तव में प्राणहीनता, जड़ता और मृत्यु की प्रतीक एंव परिचायक हैं।

कर्मयोगी लोग कहा करते हैं कि लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए इस संसार में हर प्राणी को अपनी ही कुदाली से खोद-खाद कर अपनी राह बनानी पड़ती है। कुदाली वास्तव में कर्मवता और कर्मनिष्ठा का ही प्रतीक है। द्वितीय विश्वयुद्ध में एटम बमों से नष्ट-भ्रष्ट हो गया जापान आज जो अमेरिका की समृद्धता को चुनौती दे रहा है, उसका एकमात्र कारण कर्म की निरंतरता के प्रति निष्ठा ही है और यह भी कहा जाता है कि जो चलता रहता, वही एक-न-एक दिन अपनी मंजिल तक पहुंच पाता है। जो चलेगा ही नहीं, वह कहीं भी कैसे पहुंच सकता है। जिस प्रकार इच्छित मंजिल तक पहुंचने के लिए निरंतर चलते रहना आवश्यक है, उसी प्रकार सुख-समृद्धि एंव सफलता का लक्ष्य पाने के लिए निरंतर कर्म करते रहना, यह सोचे या चिंता किए बिना कि फल क्या होगा, परम आवश्यक है।

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