कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव आतम द्रिष्टि कहां लिखै, जित देखो तित पीव।
अर्थ :कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है। वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है। आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है। हम तो जहाॅ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।
दोहा – 2
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।
अर्थ :मैं कितनी शिक्षा देता रहूॅ। स्वयं अपने मन में समझों। सभी अक्षर दावात में है पर दावात अक्षर में नहीं है। यह संसार परमात्मा में स्थित है पर परमात्मा इस सृष्टि से भी बाहर तक असीम है।
दोहा – 3
ज्ञान भक्ति वैराग्य सुख पीव ब्रह्म लौ ध़ाये आतम अनुभव सेज सुख, तहन ना दूजा जाये।
अर्थ :ज्ञान,भक्ति,वैराग्य का सुख जल्दी से तेज गति से भगवान तक पहुॅंचाता है। पर आत्मानुभव आत्मा और परमात्मा का मेल कराता है। जहाॅं अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता है।
दोहा – 4
ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।
अर्थ :जिसे अनुभव का ज्ञान है उसके लक्षणों के बारे में क्या कहा जाय। वह साधु असाधु में भेद नहीं देखता है। वह समदर्शी होता है। अतः उसका वर्णन क्या किया जाय।
दोहा – 5
दूजा हैं तो बोलिये, दूजा झगड़ा सोहि दो अंधों के नाच मे, का पै काको मोहि।
अर्थ :यदि परमात्मा अलग अलग हों तो कुछ कहाॅ जाय। यही तो सभी झगड़ों की जड़ है। दो अंधों के नाच में कौन अंधा किस अंस अंधे पर मुग्ध या प्रसन्न होगा?
दोहा – 6
नर नारी के सूख को, खांसि नहि पहिचान त्यों ज्ञानि के सूख को, अज्ञानी नहि जान।
अर्थ :स्त्री पुरुष के मिलन के सुख को नपुंसक नहीं समझ सकता है। इसी तरह ज्ञानी का सुख एक मूर्ख अज्ञानी नहीं जान सकता है।
दोहा – 7
निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।
अर्थ :अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है
दोहा – 8
ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।
अर्थ :एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिये। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रंृगार करेगी।
दोहा – 9
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
अर्थ :परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
दोहा – 10
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।
अर्थ :परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।
दोहा – 11
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।
अर्थ :हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।
दोहा – 12
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।
अर्थ :एक धनी निर्धन और निर्धन धनी हो सकता है। परंतु परमात्मा का निवास होने पर वह कभी पूर्ण भरा या खाली नहीं रहता। अनुभव यही कहता है। परमात्मा से पुर्ण हृदय कभी खाली नहीं-हमेशा पुर्ण ही रहता है।
दोहा – 13
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।
अर्थ :ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।
दोहा – 14
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
अर्थ :जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।
दोहा – 15
आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।
अर्थ :परमात्मा के संबंध में आत्मा के अनुभव को किसी के पूछने पर बतलाना संभव नहीं है। यह तो स्वयं के प्रयत्न,ध्यान,साधना और पुण्य कर्मों के द्वारा ही जाना जा सकता है।
दोहा – 16
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अर्थ :अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
दोहा – 17
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
अर्थ :परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।
दोहा – 18
ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।
अर्थ :गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।
दोहा – 19
ज्ञानी मूल गंवायीयाॅ आप भये करता ताते संसारी भला, सदा रहत डरता।
अर्थ :किताबी ज्ञान वाला व्यक्ति परमात्मा के मूल स्वरुप को नहीं जान पाता है। वह ज्ञान के दंभ में स्वयं को ही कर्ता भगवान समझने लगता है। उससे तो एक सांसारिक व्यक्ति अच्छा है जो कम से कम भगवान से डरता तो है।
दोहा – 20
वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।
अर्थ :वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूॅं।
दोहा – 21
ज्ञानी भुलै ज्ञान कथि निकट रहा निज रुप बाहिर खोजय बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।
अर्थ :तथाकथित ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है जबकी प्रभु अपने स्वरुप में उसके अत्यंत निकट हीं रहते है। वह प्रभु को बाहर खोजता है जबकी वह अनुपम आकर्षक प्रभु हृदय के विराजमान है।
दोहा – 22
अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल आंखो से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।
अर्थ :वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है । वह अपने आॅखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है । अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है ।