Kabir ke Dohe
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वीरता – कबीर – दोहा

दोहा – 1

सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये
जैसे बाती दीप की कटि उजियारा होये।

अर्थ : सिर अंहकार का प्रतीक है। सिर बचाने से सिर चला जाता है-परमात्मा दूर हो जाता हैं।
सिर कटाने से सिर हो जाता है। प्रभु मिल जाते हैं जैसे दीपक की बत्ती का सिर काटने से प्रकाश बढ़ जाता है।

दोहा – 2

साधु सब ही सूरमा, अपनी अपनी ठौर
जिन ये पांचो चुरीया, सो माथे का मौर।

अर्थ : सभी संत वीर हैं-अपनी-अपनी जगह में वे श्रेष्ठ हैं। जिन्होंने काम,क्रोध,लोभ,मोह
एंव भय को जीत लिया है वे संतों में सचमुच महान हैं।

दोहा – 3

सूरा के मैदान मे, कायर का क्या काम
सूरा सो सूरा मिलै तब पूरा संग्राम।

अर्थ : वीरों के युद्ध क्षेत्र में कायरों का क्या काम। जब वीर का मिलन होता है तो संग्राम पूरा होता है।
जब एक साधक को ज्ञानी गुरु मिलते हैं तभी पूर्ण विजय मिलती है।

दोहा – 4

सूरा के मैदान मे, क्या कायर का काम
कायर भागे पीठ दैई, सूर करै संग्राम।

अर्थ : वीरों के युद्ध मैदान में कायरों का क्या काम। कायर तो युद्ध छोड़ कर पीठ दिखाकर भाग जाता है।
पर वीर निरंतर युद्ध में डटा रहता है। वीर भक्ति और ज्ञान के संग्राम में रत रहता है।

दोहा – 5

सूरा के मैदान मे, कायर फंदा आये
ना भागे ना लड़ि सकै, मन ही मन पछिताये।

अर्थ : वीरों के मैदान में एक कायर फॅंस जाता है। उसे न तो भागते बनता है और न ही लड़ते बनता है।
वह केवल मन ही मन पछताता रहता है।

दोहा – 6

सूरा सोई जानिये, पांव ना पीछे पेख
आगे चलि पीछा फिरै, ताका मुख नहि देख।

अर्थ : साधना के राह में वह व्यक्ति सूरवीर है जो अपना कदम पीछे नहीं लौटाता है।
जो इस राह में आगे चल कर पीछे मुड़ जाता है उसे कभी भी नहीं देखना चाहिये।

दोहा – 7

आगि आंच सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रस महा कठिन ब्यवहार।

अर्थ : आग की लपट सहना और तलवार की धार की मार सहना सरल है किंतु प्रेम रस का निर्वाह अत्यंत कठिन व्यवहार है।

दोहा – 8

सूरा सोई जानिये, लड़ा पांच के संग
राम नाम राता रहै, चढ़ै सबाया रंग।

अर्थ : सूरवीर उसे जानो जो पाॅंच बिषय-विकारों के साथ लड़ता है।
वह सर्वदा राम के नाम में निमग्न रहता है और प्रभु की भक्ति में पूरी तरह रंग गया है।

दोहा – 9

आप स्वार्थी मेदनी, भक्ति स्वार्थी दास
कबिरा नाम स्वार्थी, डारी तन की आस।

अर्थ : पृथ्वी जल के लिये इच्छा-स्वार्थ कड़ती है और भक्ति प्रभु के लिये आत्म समर्पण चाहती है।
कबीर शरीर के लिये समस्त आशाओं को त्याग कर प्रभु नामक सूमिरण हेतु इच्छा रखते हैं।

दोहा – 10

उॅंचा तरुवर गगन फल, पंछी मुआ झूर
बहुत सयाने पचि गये, फल निरमल पैय दूर।

अर्थ : वृक्ष बहुत उॅंचा है और फल आसमान में लगा है-पक्षी बिना खाये मर गई।
अनेक समझदार और चतुर व्यक्ति भी उस निर्मल पवित्र फल को खाये बिना मर गये।
प्रभु की भक्ति कठिन साधना के बिना संभव नहीं है।

दोहा – 11

हरि का गुन अति कठिन है, उॅंचा बहुत अकथ्थ
सिर काटि पगतर धरै, तब जा पंहुॅचैय हथ्थ।

अर्थ : प्रभु के गुण दुर्लभ,कठिन,अवर्णनीय और अनंत हैं।
जो सम्पूर्ण आत्म त्याग कर प्रभु के पैर पर समर्पण करेगा वही प्रभु के निकट जाकर उनके गुणों को समझ सकता है।

दोहा – 12

अब तो जूझै ही बनै, मुरि चलै घर दूर
सिर सहिब को सौपते, सोंच ना किजैये सूर।

अर्थ : अब तो प्रभु प्राप्ति के युद्ध में जूझना ही उचित होगा-मुड़ कर जाने से घर बहुत दूर है।
तुम अपने सिर-सर्वस्व का त्याग प्रभु को समर्पित करो। एक वीर का यही कत्र्तव्य है।

दोहा – 13

सूरा सोई सराहिये, लड़ै धनी के हेत
पुरजा पुरजा है परै, तौउ ना छारै खेत।

अर्थ : उस वीर की सराहना करें जो महान प्रभु के हेतु निरंतर संघर्ष-साधना करता है।
वह युद्ध के मैदान-साधन के पथ को कभी नहीं छोड़ता है भले ही उसके टुकड़े टुकड़े हो जायें।
वह सर्वस्व त्याग के बाबजूद साधना पथ पर अडिग रहता है।

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