काहु जुगति ना जानीया,केहि बिधि बचै सुखेत नहि बंदगी नहि दीनता, नहि साधु संग हेत।
अर्थ : मैं कोई उपाय नहीे जानता जिससे मैं अपना खेती की रक्षा कर सकता हूॅ। न तो मैं ईश्वर की बंदगी करता हूॅं और न हीं मैं स्वभाव में नम्र हूॅं। न हीं किसी साधु से मैंने संगति की है।
दोहा – 2
जब घटि मोह समाईया, सबै भया अंधियार निरमोह ज्ञान बिचारि के, साधू उतरै पार।
अर्थ : जब तक शरीर मे मोह समाया हुआ है-चतुद्रिक अंधेरा छाया है। मोह से मुक्त ज्ञान के आधार पर संत लोग संासारिकभव सागर से पार चले जाते हंै।
दोहा – 3
मोह नदी बिकराल है, कोई न उतरै पार सतगुरु केबट साथ लेई, हंस होय जम न्यार।
अर्थ : यह मोह माया की नदी भंयकर है। इसे कोई नहीं पार कर पाता है। यदि सद्गुरु प्रभु के नाविक के रुप में साथ हो तो हॅंस समान सत्य का ज्ञानी मोह समान यम दूत से वच सकता है।
दोहा – 4
मोह मगन संसार है, कन्या रही कुमारि कहु सुरति जो ना करि, ताते फिरि औतारि।
अर्थ : यह संसार मोह माया मे डूब गया है। उसकी कन्या कुॅंवारी रह गई है। यदि कोई प्रयास नहीं किया जायेगा तो वह अनेक पुनर्जन्म लेकर संसार में भटकती रहेगी। हमें परमात्मा से परिचय कर इस अनर्थक भटकाव से रक्षा करनी चाहिये।
दोहा – 5
जहां लगि सब संसार है, मिरग सबन की मोह सुर, नर, नाग, पताल अरु, ऋषि मुनिवर सबजोह।
अर्थ : जहाॅं तक संसार है यह मृगतृष्णा रुपी मोह सबको ग्रसित कर लिया है। देवता,मनुष्य पाताल नाग और ऋषि-मुनि सब इसके प्रभाव में फॅंस गये हैं।
दोहा – 6
कुरुक्षेत्र सब मेदिनी, खेती करै किसान मोह मिरग सब छोरि गया, आस ना रहि खलिहान।
अर्थ : यह भुमि कुरुक्षेत्र की भाॅंति पवित्र है। किसान खेती करते हैं परंतु मोह-माया रुपी मृग सब चर गया। खलिहान में भंडारण हेतु अन्न कुछ भी शेष नहीं रहता।
दोहा – 7
मोह फंद सब फांदिया, कोय ना सकै निवार कोई साधु जन पारखी, बिरला तत्व विचार।
अर्थ : मोह-माया के फॅंास में सब फॅंस जाते हैं। कोई भी इस से बच नही पाता है। शायद कोई संत इस मूलतत्व पर विचार कर अपनी रक्षा कर पाता है।
दोहा – 8
ऐक मोह के कारने, भरत धरी दौ देह ते नर कैसे छुटि हैं, जिनके बहुत सनेह।
अर्थ : इसी माया-मोह के कारण भरत को पुनः जनम लेकर दो बार शरीर धारण करना पड़ा। कोई मनुष्य जो संसार से अधिक स्नेह करता है वह कैसे इस संसार के बंधन से बच सकता है।
दोहा – 9
अपना तो कोई नहीं, हम काहु के नाहि पार पंहुचि नाव जब, मिलि सब बिछुरै जाहि।
अर्थ : इस संसार मेरा अपना कोई नहीं है। हम भी किसी के अपने नहीं हंै। जब नाव उस पार पहूॅचेगी तब उस पर मिलने वाले सभी विछुड़ जायेगें।यह नाव रुपी संसार है।
दोहा – 10
अपना तो कोई नहीं, देखा ठाोकि बजाय अपना अपना क्या करे, मोह भरम लिपटाय।
अर्थ : इस संसार में अपना कोई नहीं हैं। इसे काफी जाॅंच परख कर देख लिया है। अपना-अपना करना व्यर्थ है। सभी लोग मोह माया और भ्रम के जाल में फंसे है।
दोहा – 11
मोह सलिल की धार मे, बहि गये गहिर गंभीर सुक्षम माछली सुरति है, चढ़ती उलटि नीर।
अर्थ : मोह माया के बहाव में बड़े-बड़े लोग बह जाते है। मोह नदी की धारा की भॅंाति है। एक छोटी मछली ज्ञानी की भॅंति धारा की उलटी दिशामें तैर कर नदी पार कर जाती है।
दोहा – 12
अस्ट सिद्धि नव निधि लौ सब ही मोह की खान त्याग मोह की वासना, कहे कबीर सुजान।
अर्थ : आठों प्रकार की सिद्धियाॅं और नौ प्रकार की निधियाॅ सब माया मोह की खान हैं। ज्ञानी कबीर कहते है कि हमें मोह माया की इच्छाओं का त्याग करना चाहिये।
दोहा – 13
सुर, नर ऋषि मुनि सब फसे, मृग तृशना जग मोह मोह रुप संसार है, गिरे मोह निधि जोह।
अर्थ : देवता,मनुष्य,ऋषि,मुणि सभी मृग तृष्णा रुपी संसार के मोह में फॅंसे हैं। यह संसार माया जाल स्वरुप है। सभी माया-मोह के समुद्र में गिरे पड़े है।
दोहा – 14
प्रथम फंदे सब देवता, बिलसै स्वर्ग निवास मोह मगन सुख पायीया, मृत्यु लोक की आस।
अर्थ : मोह में देवता लोग स्वर्ग में रहकर सुख और आनंद का उपभोग करने लगे। लेकिन मोह में अधिक फंस कर अधिकाधिक सुख के लिये मृत्यु लोक की कामना करने लगे। यही मोह पतन का कारण है।
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