अर्थ : कबीर कहते है कि मीठी चीनी छोड़ कर कंकड़-पथ्थर चुन-चुन खा रहे हैं। इस शरीर रुपी रत्न को बालू में वर्वाद कर अब पश्चाताप करने से क्या लाभ है।
दोहा – 2
कबीर चुनता कन फिरा, हीरा पाया बाट ताको मरम ना जानिय, ले खलि खाई हाट।
अर्थ : कबीर चावल का दाना चुनते चल रहे हैं और उन्हें रास्ते में हीरा मिल गया। किंतु उसका महत्व नहीं जानने के कारण वे बाजार में चूना लेकर खा रहे है। सत्संग के बिना ज्ञान नहीं हैं
दोहा – 3
काया माहि कबीर है, ज्यों पहुपम मे बास कई जाने कोई जौहरी, कई जाने कोई दास।
अर्थ : कबीर के अनुसार इसी शरीर में प्रभु का वास है जैसे फूल में सुगंध का बास है। इस तथ्य को कोई पारखी या जौहरी जानता है अथवा कोई प्रभु का भक्त या दास।
दोहा – 4
कबीर ये जग आंधरा, जैसे अंधी गाय बछरा था सो मरि गया, वो भी चाम चटाय।
अर्थ : कबीर के मुताविक यह संसार अंधा-अविवेकी है जैसे कि एक अंधी गाय। उसका वछड़ा मर चुका है पर उसे हीं बार-बार चाट रहा है। आदमी भी नश्वर शरीर में मन लगाता है।
दोहा – 5
कबीर देखि परखि ले, परखि के मुख खोल साधु असाधु जानि ले, सुनि मुख का बोल।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि देख-समझ कर हीं अपना मुॅंह खोलना चाहिये कुछ बोलना चाहिये। व्यक्ति के साधु या असाधु की जाॅंच उस के वचन सुन कर हीं की जा सकती है।
दोहा – 6
जब गुण को गाहक मिलय, तब गुण लाख बिकाय जब गुण को गाहक नहीं, कौरी बदले जाय।
अर्थ : गुणी का ग्राहक मिलने पर वह लाखों में विकता है। पर गुणी का ग्राहक खरीदार नहीं मिलने पर वह कौड़ी के भाव लिया जाता है।
दोहा – 7
नैना सोई जानिये जाके हिय विवेक नैन खोंट तब जानिये, साहब को नहि देख।
अर्थ : उसी के आॅंख को सही मानिये जिसके हृदय में विवेक है। उसके आॅंखों में कोई खरावी मानिये जो ईश्वर को नहीं देख पाता है।
अर्थ : प्रभु के राम रुपी धन को हीरा अनमोल है। अन्य हीरा धन का मूल्य है। प्रभु का हीरा चुन-चुन कर गठरी बाॅंधों और क्षण-क्षण उसका दर्शन करो।
दोहा – 9
मैं जानु हरि दूर है, हरि है हृदय माहि आरी टाटि कपट की, तासै दीसत नाहि़।
अर्थ : मैं जानता था कि प्रभु बहुत दूर हैं परंतु प्रभु तो अंतरात्मा में हैं। छल कपट का परदा के कारण वह हमें दिखाई नहीं देते हैं।
दोहा – 10
परदेशा खोजन गया, घर हीरा की खान कांच मनी का पारखी, क्यों पाबैय पहिचाान।
अर्थ : मैं प्रभु को खोजने दूर देश तक गया परंतु हीरा का खान तो घर में हीं था। शीशे के आभुषण का पारखी उसे कैसे पहचान पायेगा?संासारिक विषयों में लिप्त प्रभु को कैसे जान सकता है।
दोहा – 11
बकता ज्ञानी जगत में, पंडित कवि अंनत सत्य पदारथ पारखी, बिरला कोई संत।
अर्थ : बोलने बाला ज्ञाता,पंडित और कवि इस संसार में अनेकानेक हैं किंतु पदार्थ के सत्य को जानने वाला विरले हीं मिलते है। वे संत हैं जो प्रभु को जानते हैं।
अर्थ : हॅंस और बगुला एक समान दीखते हैं और दोनों मानसरोवर में रहते हैं। परंतु बगुला मछली खोजता है और हॅंस मोती खाता है। संासारिक लोग बिषय वासना में रहते हैं और भक्त ईश्वर में निमग्न रहता है।
दोहा – 13
उत्तर दक्षिण पुरब पक्षिम, चारो दिशा प्रमान उत्तम देश कबीर का, अपरापुर स्थान।
अर्थ : सभी दिशाओं में प्रमाणिक रुप से सत्य है परंतु उत्तम देश स्थान वह है जहाॅं प्रभु का निवास स्थान है।
दोहा – 14
एक ही बार परखिये, ना वह बारंबार बालू तोहुं किरकिरि, जो छाानय सौ बार।
अर्थ : किसी मनुष्य की जाॅच एक बार करना पर्याप्त है-बारंबार नहीं। बालु को सौ बार छानने पर भी उसका किरकिराहट नहीं जाता है।
अर्थ : हीरा का पारखी जौहरी और शब्दो का पारखी संत है। कबीर का मत है कि संतों की परख उनकी गंभीर वाणी और विचारों से है।
दोहा – 16
हीरा का कछु ना घटा, घट जु बेचनहार जनम गवायो आपनो, अंधे पसु गंवार।
अर्थ : हीरा को कचड़े-कुड़ा की तरह वेचने वाले का घाटा होता है हीरा का कुछ नहीं होता। मैंने अपना जीवन अंधे और गॅंवार पशु की तरह गॅंवा दिया। विवेकी मनुष्य को अपने जीवन का महत्व समझना चाहिये।
दोहा – 17
हीरा तहां ना खोलिय, जहां खोटी है हाट कसि करि बांधो गांठरी, उठि करि चलो बाट।
अर्थ : अपने हीरा को उस जगह मत खोलो जहाॅं का बाजार में भ्रम हो। अपनी गठरी को कस कर बाॅंधों और उठकर अपने रास्ते चल दो। निम्न बुद्धि वालों के बीच अपने सत्य ज्ञान को मत खोलो।
दोहा – 18
हृदय हीरा उपजय, नवी कमल के बीच जो कबहु हीरा लखै, कदै ना आबैय मीच।
अर्थ : कमल हृदय और नाभि के बीच उत्पन्न होता है। जो हीरा को लेता है उसके निकट मौत,दुख और संताप कभी नहीं आता। हृदय में हीरा रुपी प्रभु को पहचानना आवश्यक है।
दोहा – 19
हंसा तो महरान का, आया बलियो माहिं बगुला करि करि मारिया, मरम जु जाने नाहि।
अर्थ : मान सरोवर का हॅंस इस पृथ्वी पर आ गया और लोग बगुला समझ कर उसे मारने लगे कारण लोग उसके महत्व को नहीं समझते थे।ज्ञानी लोगों का महत्व नहीं जानने पर लोग उन्हें परेशान करते हैं।
दोहा – 20
सागर मे मानिक बसै, चिन्हत नाहि कोय या मानिक कु सो लखे जाको गुरुमत होय।
अर्थ : समुद्र में मोती रहता है परंतु उसे कोई पहचानता नहीं है। इस मोती को वह पहचान सकता है जो गुरु की भक्ति में पूर्ण समर्पित होता है।
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