काल – कबीर – दोहा
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दोहा – 1
तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।
तुम गहरी नीन्द में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे सिरहाने में मौत खड़ा है जैसे
अंधेरे में चोर छिपकर रहता है।
दोहा – 2
कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ।
इस क्षण मे खारा और तुरत जीवन मीठा हो जाता है।
जो योद्धा वीर कल मार रहा था आज वह स्वयं श्मसान में मरा पड़ा है।
दोहा – 3
जीव जनजालय परि रहा, दिया दमामा आये।
प्राणी माया के जंजाल में पड़ा हुआ है और काल ने कूच करने के लिये नगारा पीट दिया है।
दोहा – 4
जन जन को मन राखती, वेश्या रहि गयी बांझ।
वह प्रत्येक आदमी का मन पूरा कर देती है पर वेश्या स्वयं बांझ ही रह जाती है।
दोहा – 5
बंधियो बारि खटीक के, ता पशु केतिक आये।
एक पशु कसाई के द्वार पर बांध दिया गया है-समझो उसकी आयु कितनी शेष बची है।
दोहा – 6
सुा, नर, मुनि, जन,असुर, सुर, परे काल की फांसि।
देवता, आदमी, साधु, राक्षस सभी मृत्यु के फांस में पड़े है।
मृत्यु किसी को नहीं छोड़ता।राम ही सुखों के दाता है।
दोहा – 7
चलो हंस घर आपने, लेहु धनी का देश।
ऐ हंसो-अपने घर चलो। परमात्मा के स्थान का शरण लो। वही तुम्हारा मोक्ष होगा।
दोहा – 8
कहै कबीर मैं क्या करुॅ, कोयी नहीं पतियाये।
कबीर कहते है की अब मैं क्या करु-कोई भी मेरी बात पर विश्वास नहीं करता है।
दोहा – 9
राम सनेही बाहिरा, क्यों सोबय निहचिंत।
परम प्रिय स्नेही भगवान बाहर है। तुम क्यों निश्चिंत सोये हो। भगवान की भक्ति बिना तुम निश्चिंत मत सोओ।
दोहा – 10
दस दिन नाम संभार ले,जब लगि पिंजर सांश।
केवल दस दिन प्रभु का नाम सुमिरन करलो जब तक इस शरीर में सांस बचा है।
दोहा – 11
जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।
जिसके मन में मृत्यु के बारे में जैसी कल्पना है-वही मृत्यु कहलाता है।
दोहा – 12
जरा मुअई ना भय मुआ, कुशल कहाॅ ते होये।
बुढ़ापा नहीं मरा,न भय मरा तो कुशल कहाॅ से कैसे होगा।
दोहा – 13
नाम बिहुना जग मुआ, कुशल कहाॅ ते होये।
और भक्ति के बिना कुशल कैसे संभव है।
दोहा – 14
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।
समय पर सभी जीचों का विनाश हो जाता है। काल भी काल को-मृत्यु भी समय को खा जाता है।
दोहा – 15
कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।
समस्त घमंड अभिमान छोड़ कर प्रभु के नाम को पकड़ो-ग्रहण करो-तुम्हारी मुक्ति होगी।
दोहा – 16
दरिया केरे नाव ज्यों, घना मिलेंगे आये।
फिर बहुत से लोग तुम्हें मिल जायेंगे। आवा गमन-मृत्यु जन्म की चिंता नहीं करनी है।
दोहा – 17
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।
सब लोग अपने शरीर पर गर्व कर रहे थे परंतु मृत्यु एक ही
चोट में शरीर को मार कर ले गये।
दोहा – 18
दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।
बच पाया। संसार के जन्म मरण रुपी दो चक्को के बीच कोई भी जीवित नहीं रह सकता है।
दोहा – 19
गुरु जहाज जाने बिना, रोबै घट खराय।
निश्चय इस भव सागर को पार कर जायेगा। जिसे यह गुरु रुपी जहाज नहीं मिला वह किनारे खड़ा रोता रहेगा।
गुरु के बिना मोक्ष संभव नहीं है।
दोहा – 20
आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाॅ ते होये।
लोगो की आयु कम हो रही है। यौवन भी खिसक रहा है-तब जीवन का कल्याण कैसे होगा।
दोहा – 21
रुरा सब्द कबीर का, डारा पात उखार।
बहुत ताकतवर है। जो भ्रम और माया के पाट पर्दा को ही उघार देता है और मोह
माया से लोगो की रक्षा हो जाती है।
दोहा – 22
जगत चबेना काल का, कछु मुथी कछु गोद।
यह संसार मृत्यु का चवेना है। मृत्यु कुछ को अपनी मुठ्ठी और कुछ को गोद में रख कर
लगातार चवा रहा है।
दोहा – 23
या घर याही रीति है, एक आवत एक जात।
इस धर का यही तरीका है की एक आता है और एक जाता है।
दोहा – 24
हाथों पर्वत तौलते, ते भी खाये काल।
कृष्ण ने एक हाथ पर पहाड़ को तौल लिया लेकिन मृत्यु उन सबोंको भी खा गया।
दोहा – 25
कहे कबीर मैं का कहुॅ, देखत ना पतियाय।
वे कहते कहते है की मैं क्या करुॅ-लोग आॅंख से देखने पर भी विश्वास नहीं करते है।
दोहा – 26
फूले फूले चुनि लियो, कल्ह हमारी बार।
एक दिन सबकी एक ही दसा होगी।
दोहा – 27
आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल।
इस जगत में आना जाना लगा ही रहता है जैसे की एक नाली का कीड़ा
पंक्ति बद्ध हो कर आजा जाता रहता है।
दोहा – 28
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।
दोहा – 29
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।
मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है।
दोहा – 30
चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि।
जैसे मोम के घोंड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है।
दोहा – 31
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।
वर्षा मंे रहने पर भी पथ्थर से आग अलग नहीं होता।
दोहा – 32
सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।
उसे स्वप्न में भी भ्रम नहीं होता और उसके पुनर्जन्म का अंत हो जाता है।
दोहा – 33
लोभी शीश ना दे सके, नाम प्रेम का लेय।
एक लोभी-लालची अपने सिर का वलिदान कभी नहीं दे सकता भले वह कितना भी प्रेम-प्रेम चिल्लाता हो।
दोहा – 34
राजा प्रजा जेहि रुचै,शीश देयी ले जाय।
राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानि सर्वस्व त्याग कर प्रेम
प्राप्त कर सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है।
दोहा – 35
उत्तम प्रीति सो जानिय, राम नाम से जो होय।
पर सर्वोत्तम प्रेम वह है जो राम के नाम से किया जाये।
दोहा – 36
जा मारग हरि जी मिलै, प्रेम कहाये सोई।
जिस मार्ग पर प्रभु का दर्शन हो जाये वही सच्चा प्रेम का मार्ग है।
दोहा – 37
सब्द माहि जब मिली रहै, नहि आबै नहि जाय।
जो सद्गुरु के शब्दों-उपदेशों से घुल मिल गया हो उसका पुनः जन्म या मरण नहीं होता है।
दोहा – 38
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।
यदि कोई व्यक्ति आठो पहर प्रेम में भीन्गा रहे तो उसका प्रेम सच्चा कहा जायेगा।
दोहा – 39
सुमिरन मन की प्रीति है, सो मन तुम ही माहि।
सुमिरण मन का प्रेम है और मेरा मन सर्वदा तुम्हारे ही पास रहता है।
दोहा – 40
कपट सनेही आंगनै, जानो समुन्दर पार।
में भी बसा है तो मानो वह समुद्र के उसपार बसा है।
दोहा – 41
बिपति परै दुख बाटिये, सो लाखन मे ऐक।
दुख वाटने वाला लाखों मे एक ही मिलते हैं।
दोहा – 42
सीस काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत।
तभी कोई संत इस घर में प्रवेश कर सकता है। प्रेम के लिये सर्वाधिक त्याग की आवश्यकता है।
दोहा – 43
टेक निबाहै देह भरि, रहै सबद मिलि ऐक।
गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करना चाहिये।
दोहा – 44
कबीर पिबन दुरलभ है, मांगे शीश कलाल।
अत्यंत दुर्लभ है क्यों कि यह सिर रुपी अंहकार का त्याग मांगता है।
दोहा – 45
रंचक तन मे संचरै, सब तन कंचन होये।
बराबर कुछ भी नहीं है। प्रेम रुपी साधन का अल्प उपयोग भी हृदय में जिस रस का संचार
करता है उससे सम्पूर्ण शरीर स्र्वण समान उपयोगी हो जाता है।
दोहा – 46
अपने जीये से जानिये, मेरे जीये की बात।
दो शरीर हो जाते हैं। अपने हृदय की अवस्था जानकर अपने प्रेमी के हृदय की स्थिति जान जाते हैं।
दोहा – 47
ज्ञान बिना जावै नहि, मन मनसा का दाग।
प्रभु के ज्ञान बिना मन से इच्छाओं और मनोरथों को नहीं मिठाया जा सकता है।
दोहा – 48
जो पाऐ मुख बोलै नहीं, नयन देत है रोय।
विह्वलता के कारण रोने लगता है।
दोहा – 49
दोय खड्ग ऐक म्यान मे, देखा सुना ना कान।
एक म्यान में दो तलवार रखने की बात न देखी गई है ना सुनी गई है।
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