सुमिरन मारग सहज का,सदगुरु दिया बताई सांस सांस सुमिरन करु,ऐक दिन मिलसी आये।
अर्थ : ईश्वर स्मरण का मार्ग अत्यंत सरल है। सदगुरु ने हमें यह बताया है। हमें प्रत्येक साॅंस में ईश्वर का स्मरण करना चाहिये। एक दिन निश्चय ही प्रभु हमें मिलेंगे।
दोहा – 2
सुमिरन की सुधि यों करो जैसे कामी काम एक पलक बिसरै नहीें निश दिन आठों जाम।
अर्थ : ईश्वर के स्मरण पर उसी प्रकार ध्यान दो जैसे कोई लोभी कामी अपनी इच्छाओं का स्मरण करता है। एक क्षण के लिये भी ईश्वर का विस्मरण मत करो। प्रत्येक दिन आठों पहर ईश्वर पर ध्यान रहना चाहिये।
दोहा – 3
अपने पहरै जागीये ना परि रहीये सोय ना जानो छिन ऐक मे, किसका पहिरा होय।
अर्थ : आप इस समय जागृत रहें। यह समय सोने का नहीं है। कोई नहीं जानता किस क्षण आपके जीवन पर दूसरे का अधिकार हो जाये। समय का महत्व समझें।
दोहा – 4
राम नाम सुमिरन करै, सदगुरु पद निज ध्यान आतम पूजा जीव दया लहै सो मुक्ति अमान।
अर्थ : जो राम का सुमिरन और सदगुरु के चरणों का ध्यान करता है,जो आत्मा से ईश्वर की पूजा करता और जीवों पर दया भाव रखता है-उसे निश्चय हीं मुक्ति प्राप्त होती है।
अर्थ : जो फल की आकांक्षा से प्रभु का स्मरण करता है उसे अति उत्तम फल प्राप्त होता है। जो किसी इच्छा या आकांक्षा के बिना प्रभु का स्मरण करता है उसे आत्म साक्षातकार का लाभ मिलता है।
दोहा – 6
वाद विवाद मत करो करु नित एक विचार नाम सुमिर चित लायके, सब करनी मे सार।
अर्थ : बहस-विवाद व्यर्थ है। केवल प्रभु का सुमिरन करो। पूरे चित एंव मनों योग से उनका नाम स्मरण करो। यह सभी कर्मों का सार है।
दोहा – 7
कबीर सोयी पीर है जो जाने पर पीर जो पर पीर ना जाने सो काफिर बेपीर।
अर्थ : कबीर के अनुसार जो दुसरों के तकलीफ-पीड़ा को जानता है वह संत है। जो दूसरों के कष्ट-दुख को नहीं जानता है-वह काफिर है।
दोहा – 8
कबीर वा दिन याद कर पग पर उपर तल शीश मृत मंडल मे आय के विशरि गया जगदीश।
अर्थ : कबीर कहते है कि हमें वह दिन सदा याद रखनी चाहिये जब हमारा पैर उपर और सिर नीचे होगा। इस नश्वर संसार में आकर हम सर्वशक्तिमान ईश्वर को भूल गये हैं।
दोहा – 9
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया ना कोय ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।
अर्थ : संसार में लोग धर्म की पोथी पढ़ते-पढ़ते मृतप्राय हैं पर पंडित कोई नहीं हो सका। जो व्यक्ति प्रेम का ढ़ाई अक्षर मनन कर लिया-वह वास्तविक पंडित यानि ईश्वर तत्व का जानकार है।
अर्थ : सत्य का पालन सबसे बड़ी तपस्या है। झूठ से बढ़ कर कोई पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य का वास है-प्रभु उसके हृदय में निवास करते हैं।
दोहा – 11
जहां दया वहां धरम है, जहां लोभ तहां पाप जहां क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा तहां आप।
अर्थ : जहाॅं दया है वहाॅं धर्म है। जहाॅं लोभ लालच है वहाॅं पाप है। जहाॅं क्रोध है वहाॅं काल या मृत्यु है। जहाॅं क्षमा है वहाॅं साक्षात प्रभु का वास है।
दोहा – 12
गुरु गोविंद दोनों खरे काके लागूं पांव बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बतायें।
अर्थ : कबीर गुरु की महिमा का वर्णन करते हैं। गुरु और भगवान दोनों खड़े हैं कबीर दुविधा में है कि किसे चरण स्पर्श करु।गुरु को धन्यवाद कि उसने ईश्वर की महानता बतायी।
अर्थ : इच्छायें ही सभी कष्टों की जड़ है। जिसकी इच्छा समाप्त है उसकी सारी चिन्तायें भी दूर हो गई है तथा उसका मन भी उल्लासपूर्ण हो जाता है। जिसे कुछभी इच्छा नहीं है वस्तुतः वही इस संसार का राजा है।
दोहा – 14
कहत कबीर सुनहु रे लोई हरि बिन राखनहार ना कोई।
अर्थ : कबीर के प्रारंभिक शिष्यों में लोई एक थे। कबीर कहते है कि ओ लोई सुनों। ईश्वर के बिना कोई तुम्हारा पालन और रक्षा नहीं कर सकता। एकमात्र उसी पर भरोसा करो।
दोहा – 15
बूड़ा बंश कबीर का उपजा पूत कमाल हरि का सुमिरन छोरि के, घर ले आया माल।
अर्थ : कमाल संभवतः कबीर के पुत्र थे। कबीर दुखी हैं कि कमाल ईश्वर का स्मरण छोड़कर घर में रुपये पैसे लाने की चिंता में लग गया है। इससे तो उनके वंश-खानदान का विनाश हो जायेगा।
दोहा – 16
कबिरा खड़ा बजार मे,सबकी मांगे खैर ना काहू से दोस्ती, ना काहु से बैर।
अर्थ : दुनिया के भीड़ रुपी बाजार में सबके लिये कबीर शुभेच्छा मांगते हैं। वे न किसी विशेष के लिये मित्रता और नहीं किसी से दुश्मनी की इच्छा रखते है । ईश्वर प्राप्ति हेतु सब के लिये समत्व भाव रखना आवश्यक है।
दोहा – 17
राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट अंत काल पछतायेगा, जब प्रान जायेगा छूट।
अर्थ : ईश्वर का भजन अत्यंत सुगम है। राम नाम जितना लूटा जाये-हमें अवश्य लूटना चाहिये। मृत्यु के समय राम नाम नहीं ले पाने से अत्यंत दुख होगा।
दोहा – 18
राम रहीमा ऐक है, नाम धराया दोई कहे कबीर दो नाम सूनि, भरम परो मत कोई।
अर्थ : राम और रहीम एक ही ईश्वर के दो नाम दिये गये हैं। कबीर कहते हैं कि ये दो नाम सुनकर हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिये । कबीर धर्मिक एकता के पक्षधर थे।
दोहा – 19
नहाय धोयै क्या भया जो मन मैल ना जाय मीन सदा जल मे रहे, धोये बास ना जाय।
अर्थ : नहाने धोने से क्या लाभ यदि मन का मैल दूर नहीं हो पाया। मछली तो हमेशा जल में ही रहती है किंतु उसका दुर्गन्ध दूर नहीं हो पाता। कबीर मनो विकारों को दूर करने पर बल देते हैं।
दोहा – 20
मन मैला तन उजरा बगुला कपटी अंग तासौ तो कौआ भला, तन मन एक ही अंग।
अर्थ : यदि मन में मैला हो परंतु शरीर उजला हो जैसे की बगुला का शरीर छलावा या कपटी होता है तो उससे तो अच्छा कौआ है जिसका मन और शरीर एक समान होता है।
अर्थ : किसी की जाति से क्या अर्थ है। जुलाहा जाति से क्या मतलव जब हृदय में भगवान का निवास है। कबीर की वाणी राम के सत्संग में रहने से हीं उनके सारे सांसारिक झंझटों का अंत हो जाता है।
दोहा – 22
पापी भगति ना पावै हरि पूजा ना सुहाय मक्खी चंदन परहरै, जहां बिगध तहां जाय।
अर्थ : एक पापी व्यक्ति को ईश्वर की भक्ति अच्छी नहीं लगती है। उसे परमात्मा की पूजा भी नहीं सुहाती है। मक्खी कभी भी चंदन पर नहीं बैठती है। जहाॅं दुर्गध होता है-वहीं मक्खी चली जाती है।
अर्थ : यह मानव शरीर लकड़ी की भांति और केश घास की तरह जल जाता है। संपूर्ण शरीर को जलता देख कबीर उदास हो जाता हैं। मानव तन की क्षण भंगुरता से कबीर शिक्षा ग्रहण करने पर बल देते हैं।
दोहा – 24
गंगा तीर जु घर करहि पीवहि निरमल नीर बिन हरि भगति ना मुक्ति होई, युॅं कहि रमे कबीर।
अर्थ : गंगा के किनारे घर बनाकर बसने और गंगा का पवित्र जल पीने से क्या होगा। बिना प्रभु की भक्ति के मुक्ति संभव नहीं है। यह कबीर का दृढ़ विश्वास है।
अर्थ : कबीर का मत है कि उन लोगों से प्रेम करें जिनके मालिक राम हैं। तुम्हें पंडित,ज्ञानी राजा या दुनिया के शक्तिशाली लोगों से क्या काम है। कबीर प्रभुु भक्तों की संगति पर बल देते हैं।
दोहा – 26
नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम कहै कबीर ते राम के जो सूमिरै निहकाम।
अर्थ : सभी नर-नारी नरक में हैं जबतक वे सकाम शरीर में हैं। कबीर कहते हैं कि वे राम की शरण में हैं जो उनका निष्काम सुमिरन करता है।