अथर्ववेद – Atharvaveda
अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई थी। अथर्ववेद के दो पाठों, शौनक और पैप्पलद, में संचरित हुए लगभग सभी स्तोत्र ऋग्वेद के स्तोत्रों के छदों में रचित हैं। दोनो वेदों में इसके अतिरिक्त अन्य कोई समानता नहीं है। अथर्ववेद दैनिक जीवन से जुड़े तांत्रिक धार्मिक सरोकारों को व्यक्त करता है, इसका स्वर ऋग्वेद के उस अधिक पुरोहिती स्वर से भिन्न है, जो महान देवों को महिमामंडित करता है और सोम के प्रभाव में कवियों की उत्प्रेरित दृष्टि का वर्णन करता है।
अथर्ववेद’ में ‘आपो देवता’ से सम्बन्धित तीन सूक्त हैं। ये तीनों सूक्त ‘अपां भेषज’ अर्थात् जल चिकित्सा से सम्बन्ध रखते हैं। पाठकों के लाभार्थ उक्त तीनों सूक्त प्रस्तुत हैं- अथर्ववेद प्रथम काण्ड/चतुर्थ सूक्त मंत्रदृष्टाः सिंधुद्वीप ऋषि। देवताः अपांनपात्-सोम-और ‘आपः’। छन्दः 1-2-3 गायत्री, 4 पुरस्तातबृहती। मन्त्र अम्बयो यन्त्यध्वमिर्जामयो अध्वरीयताम्।
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पृञ्चतीर्मधुना पयः।।1।।
माताओं बहिनों की भाँति यज्ञ से उत्पन्न पोषक धारणाएँ यज्ञकर्ताओं के लिए ‘पय’ (दूध या पानी) के साथ मधुर रस मिलाती है।
अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।
तानो हिन्वन्त्वध्वरम्।।2।।
सूर्य के सम्पर्क में आकर पवित्र हुआ वाष्पीकृत जल, उसकी शक्ति के साथ पर्जन्य वर्षा के रूप में हमारे सत्कर्मों को बढ़ाए, यज्ञ को सफल बनाए।
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अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।
सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः।।3।।
हम उस ‘दिव्य आपः’ प्रवाह की अभ्यर्थना करते हैं, जो सिन्धु (अन्तरिक्ष) के लिए ‘हवि’ प्रदान करते हैं। तथा जहाँ हमारी गौएँ (इन्द्रियाँ/वाणियाँ) तृप्त होती हैं।
जीवनी शक्ति, रोगनाशक एवं पुष्टीकारक आदि दैवी गुणों से युक्त ‘आपः’ तत्व हमारे अश्वों व गौओं को वेग एवं बल प्रदान करे। हम बल-वैभव से सम्पन्न हों।
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