Kabir ke Dohe
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बन्धन – कबीर – दोहा

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दोहा – 1

आंखो देखा घी भला, ना मुख मेला तेल
साधु सोन झगरा भला, ना साकुत सोन मेल।

अर्थ : धी देखने मात्र से ही अच्छा लगता है पर तेल मुॅुह में डालने पर भी अच्छा नहीं लगता है।
संतो से झगड़ा भी अच्छा है पर दुष्टों से मेल-मिलाप मित्रता भी अच्छा नहीं है।

दोहा – 2

उॅचै कुल के कारने, बंस बांध्यो हंकार
राम भजन हृदय नाहि, जायों सब परिवार।

अर्थ : उच्च कुल-वंश के कारण बाॅंस घमंड से बंधा हुआ अकड़ में रहते है। जिसके ह्रदय में राम की भक्ति नहीं है
उसका संपूर्ण परिवार नष्ट हो जाता है। बाॅंस के रगड़ से आग पैदा होने के कारण सारे बाॅंस जल जाते हंै।

दोहा – 3

उजर घर मे बैठि के, कैसा लिजय नाम
सकुट के संग बैठि के, किउ कर पाबेराम।

अर्थ : सुनसान उजार घर में बैठकर किसका नाम पुकारेंगे।
इसी तरह मुर्ख-अज्ञानी के साथ बैठकर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकंेगे।

दोहा – 4

एक अनुपम हम किया, साकट सो व्यवहार
निन्दा सती उजागरो, कियो सौदा सार।

अर्थ : मैने एक अज्ञानी से लेनदेन का व्यवहार कर के अच्छा सौदा किया।
उसके द्वारा मेरे दोषों को उजागर करने से मैं पवित्र हो गया। यह व्यापार मेरे लिये बहुत लाभदायी रहा।

दोहा – 5

कंचन मेरु अरपहि, अरपै कनक भंडार
कहै कबीर गुरु बेमुखी, कबहु ना पाबै पार।

अर्थ : भले आप स्वर्ण भंडार या सोने का पहाड़ दान में दे दें, लुटा दें पर यदि आप गुरु के उपदेसों के प्रति उदासीन हैं तो
आप संसार सागर को पार नहीं कर पायेंगे।

दोहा – 6

कबीर साकट की सभा तु मति बैठे जाये
ऐक गुबारै कदि बरै, रोज गाधरा गाये।

अर्थ : कबीर मूर्खों की सभा में बैठने के लिये मना करते है। यदि एक गोशाला में नील गाय, गद्हा और गाय
एक साथ रहेंगे तो उन में परस्पर अवस्य लड़ाई झगड़ा होगा। दुष्ट की संगति अच्छी नहीं है।

दोहा – 7

खशम कहाबै वैषनव, घर मे साकट जोये
एक घड़ा मे दो मता, भक्ति कहां ते होये।

अर्थ : पति ईष्वर का भक्त वैष्वनव और पत्नी बेबकूफ मूर्ख हो तो एक ही घर में दो मतों विचारों के कारण
भक्ति कैसे संभव हो सकती है।

दोहा – 8

कबीर गुरु की भगति बिनु, राजा रसम होये
माटिृ लड़ै कुमहार की,घास ना डारै कोये।

अर्थ : कबीर कहते है की गुरु की भक्ति बिना एक राजा गद्हा के समान है।
उसके उपर कुम्हार की मिटृी लादी जाती है और उसे कोई घास भी नहीं देता है।
गुरु ज्ञान के बिना राजा भी महत्वहीन है।

दोहा – 9

कबीर चंदन के भिरे, नीम भी चंदन होये
बुरो बंश बराईया, यों जानि बुरु कोये।

अर्थ : कबीर कहते है की च्ंादन के संसर्ग में नीम भी चंदन हो जाता है पर बाॅंस अपनी अकड़ घमंड के कारण कभी चंदन नहीं होता है।
हमें धन विद्या आदि के अहंकार में कभी नहीं पड़ना चाहिये।

दोहा – 10

कबीर लहरि समुद्र की, मोती बिखरै आये
बगुला परख ना जानिये, हंसा चुगि चुगि खाये।

अर्थ : कबीर कहते है की समुद्र के लहड़ के साथ मोती भी तट पर बिखर जाता है। बगुला को इसकी पहचान नही होती है पर हंस
उसे चुन-चुन कर खाता है। अज्ञानी गुरु के उपदेश का महत्व नही जानता पर ज्ञानी उसे ह्रदय से ग्रहण करता है।

दोहा – 11

गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान
गुरु बिन सब निस्फल गया, पुछौ वेद पुरान।

अर्थ : गुरु की शिक्षा के बिना माला फेरने और दान देने से कोई फल नहीं मिलने वाला है।
यह बात वेद पुराण आदि प्राचीन धर्म ग्रंथों में भी कही गयी है।

दोहा – 12

टेक करै सो बाबरा, टेकै होबै हानि
जो टेकै साहिब मिलै, सोई टेक परमानि।

अर्थ : जिद करना मूर्खता है। जिद करने से नुकसान होता है।
जिस जिद से परमात्मा की प्राप्ति हो वही जिद उत्तम है।

दोहा – 13

टेक ना किजीय बाबरे, टेक माहि है हानि
टेक छारि मानिक मिले, सतगुरु वचन प्रमानि।

अर्थ : मुर्खों कभी हठ मत करो। हठ से बहुत हानि होती है। हठ छोड़ने पर माणिक्य रत्न की प्राप्ति होती है।
यह सदगुरु के उपदेशों से प्रमाणित हो चुका है। जिद छोड़कर गुरु के उपदेशों को मानने पर ईश्वर रुपी रत्न की प्राप्ति होती है।

दोहा – 14

गुरु बिन अहनिश नाम ले, नहि संत का भाव
कहै कबीर ता दास का, परै ना पूरा दाव।

अर्थ : जो गुरु के निर्देश बिना दिन रात प्रभु का नाम लेता है और जिसके दिल में संत के प्रति प्रेम भाव नहीं है।
कबीर कहते है की उस व्यक्ति का मनोरथ कभी पूरा नही होता है।

दोहा – 15

मै तोहि सो कब कहयों, तु साकट के घर जाव
बहती नदिया डूब मरु, साकट संग ना खाव।

अर्थ : शाक्त मांसाहारी संप्रदाय के पुजारी होते है। कबीर कहते है की मैने तुम से शाक्त के घर के जाने के लिये कभी नहीं कहा।
तुम बहती नदियाॅं में डूब कर मर जाओ पर शाक्त के साथ कभी मत खाओ।

दोहा – 16

निगुरा ब्राहमन नहि भला, गुरुमुख भला चमार
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूके द्वार।

अर्थ : एक मूर्ख ब्राहमन अच्छा नही है एक गुरु का शिष्य चर्मकार अच्छा है।
देवताओं से कुत्ता अच्छा है जो नित्य उठकर दरवाजे पर भौंक कर चोरों से हमारी रक्षा करता है।

दोहा – 17

पसुवा सो पालोउ परयो, रहु हिया ना खीज
उसर बीज ना उगसी, बोबै दूना बीज।

अर्थ : पशु समान प्रवृति बाले लोगों से पाला पड़ने पर लगातार खीज होती रहती है।
उसर परती जमीन पर दूगुना बीज डालने पर भी वह उगता नहीं है।

दोहा – 18

राजा की चोरी करै, रहै रंक की ओट
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट।

अर्थ : राजा के यहाॅं चोरी करके गरीब के घर शरण लेने पर कोई कैसे बच पायेगा।
कबीर का कहना है की बिना गुरु के शरण में गये कल्पित देवताओं के द्वारा तुम मृत्यु के देवता काल के मार से कैसे बच पाओगे।

दोहा – 19

भौसागर की तरास से, गुरु की पकरो बांहि
गुरु बिन कौन उबारसि, भौजाल धरा माहि।

अर्थ : इस संसार सागर के भय से त्राण के लिये तुम्हें गुरु की बांह पकड़नी होगी।
तुम्हें गुरु के बिना इस संसार सागर के तेज धारा से बचने में और कोई सहायक नहीं हो सकता है।

दोहा – 20

सब धरती कागज करुॅं, लेखन सब बनराय
साात समुंद्र की मसि करुॅं, गुरु गुन लिखा ना जाये।

अर्थ : संपूर्ण धरती को कागज, सारी दूनियाॅ के जंगलों को कलम और सातों समुद्र का जल यदि स्याही हो जाये
तब भी गुरु के गुणों का बर्णन नहीं किया जा सकता है।

दोहा – 21

सब कुछ गुरु के पास है, पाइये अपने भाग
सेबक मन सौंपे रहे, निशी दिन चारणांे लाग।

अर्थ : गुरु के पास सब ज्ञान का भंडार है और हमें अपने हिस्से का उनसे प्राप्त हो सकता है यदि हम अपने मन का
समर्पण कर दे और हमेशा उनके चरणों की सेवा में रत रहें।

दोहा – 22

प्रेम प्याला लो पिये, सीस दक्षिना देये
लोभी सीस ना दे सके, नाम प्रेम का लेये।

अर्थ : जो प्रेम का प्याला पीना चाहता है वह गुरु दक्षिणा में सिर का वलिदान भी देना जानता है।
लोभी सिर नहीं दे सकता वह सिर्फ प्रेम का नाम भर लेता है।

दोहा – 23

हरि कृपा तब जानिये, दे मानव अवतार
गुरु कृपा तब जानिये, छुराबे संसार।

अर्थ : प्रभु की कृपा हम तब जानते है जब उन्हांेने हमें मनुष्य रुप में जन्म दिया है।
गुरु की कृपा तब जानते है जब वे हमें इस संसार के सभी बंधनों से मुक्ति दिलाते है।

दोहा – 24

हरि रुठै गति ऐक है, गुरु शरनागत जाये
गुरु रुठै ऐकोय नहि, हरि नहि करै सहाये।

अर्थ : प्रभु के रुठने से एक उपाय है की आप गुरु के शरण में चले जाये।
परन्तु गुरु के रुठने से एक भी उपाय नहीं है क्यांेकि तब प्रभु भी उसकी कोई सहायता नहीं करते है।

दोहा – 25

साकत संग ना जायीये, दे मांगा मोहि दान
प्रीत संगति ना मिलेय, छारै नहि अभिमान।

अर्थ : मूर्ख के साथ कभी मत जाइये चाहे वे आपको मुॅंहमांगा देने को तैयार हों।
प्रेम नहीं मिलेगा कारण वे अपना अभिमान कभी नहीं छोडं़ेगे।

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