वरद् पुत्र – blessed son
प्राचीन काल में मथुरा में एक प्रतापी नृपति राज्य करते थे|
उनका नाम शूरसेन था|
वे भगवान श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के पिता था|
वे बड़े धर्मात्मा एवं प्रतिज्ञापालक थे|
शूरसेन के एक अनन्य मित्र थे, जिनका नाम कुंतिभोज था|
कुंतिभोज के पास सबकुछ तो था, किंतु संतान नहीं थी|
वे संतान के अभाव में दिन-रात दुखी और चिंतित रहा करते थे|
शूरसेन ने कुंतिभोज के दुख को देखकर उन्हें वचन दिया था कि वे अपनी प्रथम संतान उन्हें दान में दे देंगे|
शूरसेन की प्रथम संतान एक पुत्री थी|
उन्होंने बड़े ही प्यार के साथ उसका नाम पृथा रखा था|
पृथा जब बड़ी हुई, तो शूरसेन ने अपने वचन के अनुसार उसे कुंतिभोज को सौंप दिया|
कुंतिभोज ने उसे अपने घर ले जाकर उसका नाम कुंती रखा|
कुंती बड़ी रूपवती और गुणवती थी|
गुणवती होने के कारण कुंतिभोज ने उसे अतिथियों और साधु-महात्माओं की सेवा का कार्य सुपुर्द किया था|
वह बड़े ही मनोयोग के साथ इस कार्य को पूर्ण किया करती थी|
एक बार कुंतिभोज के घर दुर्वासा जी का आगमन हुआ|
वे कई दिनों तक कुंतिभोज के घर उसके अतिथि के रूप में रहे|
उनकी भी सेवा कुंती ही किया करती थी|
कुंती की सेवा और उसके विनीत व्यवहार ने दुर्वासा के मन को जीत लिया|
वे जब जाने लगे, तो उन्होंने कुंती को अपने पास बुलाकर कहा, “पुत्री ! मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूं|
मैं तुम्हें एक मंत्र दे रहा हूं|
तुम इस मंत्र को पढ़कर किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हो और मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकती हो|
” दुर्वासा कुंती को मंत्र देकर चले गए|
प्रभात के पश्चात का समय था|
सुर्योदेव हो चुका था, आकाश में पक्षी उड़ रहे थे|
कुंती राजकीय उद्यान में एक शिलाखंड पर बैठी हुई थी|
सहसा उसका ध्यान दुर्वासा के मंत्र की ओर गया|
उसने सोचा, क्यों न दुर्वासा के मंत्र की परीक्षा ली जाए|
कुंती ने मंत्र को पढ़कर सूर्यदेव का आह्वान किया|
आश्चर्य, सूर्यदेव कुंती के सामने प्रकट हो गए|
कुंती स्तब्ध हो गई|
उसका मस्तक अपने आप ही सूर्य के समक्ष नत हो गया|
सूर्यदेव बोल उठे, “तुमने मेरा आह्वान क्यों किया?
”
कुंती बोली, “देव, दुर्वासा ऋषि ने मुझे एक मंत्र दिया था|
मैंने मंत्र की परीक्षा के लिए उसे पढ़कर आपका आवाहन किया|
मुझे क्षमा कर दीजिए|
”
सूर्यदेव ने कुंती की ओर देखते हुए कहा, “अब तो मैं प्रकट हो गया हूं|
मेरा प्रकट होना व्यर्थ नहीं जाता|
मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहता हूं|
तुम्हें एक पुत्र देना चाहता हूं|
”
कुंती बोली, “देव ! मैं कुमारी हूं|
कुमारी लड़की के साथ रमण करना पाप है|
मेरे गर्भ से जब पुत्र पैदा होगा, तो मैं समाज में कैसे रह सकूंगी?
”
सूर्यदेव बोले, “तुम चिंता मत करो|
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मेरे समागम से तुम्हारा कौमार्य नष्ट नहीं होगा, पुत्र पैदा होने पर भी तुम्हारा कौमार्य बना रहेगा|
गर्भ की स्थिति में भी पता नहीं चल सकेगा कि तुम गर्भवती हो|
”
इसी प्रकार जब सूर्यदेव ने कुंती को सांत्वना प्रदान की तो वह उनके साथ समागम के लिए उद्यत हो गई|
परिणामत: सूर्यदेव ने कुंती के साथ रमण किया|
कुंती गर्भवती हो गई|
सूर्यदेव तो चले गए, कुंती गर्भस्थ बालक के उत्पन्न होने की प्रतीक्षा करने लगी|
समय पर गर्भस्थ बालक पैदा हुआ|
कुंती बालक को छिपाए तो कैसे छिपाए|
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उसने लोकापवाद के भय से नवजात बालक को एक संदूक में रखकर उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया|
वह संदूक हस्तिनापुर में अधिरथ नामक सारथि के हाथ लगा|
उसकी पत्नी कानाम राधा था|
उनके कोई संतान नहीं थी|
अधिरथ संदूक में नवजात शिशु को देखकर प्रसन्न हो उठा|
शिशु भी कैसा?
बड़ा तेजोमय|
वह कानों में स्वर्ण कुंडल और छाती पर कवच धारण किए हुए था|
अधिरथ ने ऐसा बालक आज तक नहीं देखा था|
वह उस बालक को अपने घर में ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगा|
अधिरथ द्वारा पालित वही नवजात शिशु बड़ा होने पर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ|
कर्ण बड़ा शूरवीर और दानी था|
उसके शौर्य और दान ने उसे अमर बना दिया|
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