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भक्त – कबीर – दोहा
दोहा – 1
आरत कैय हरि भक्ति करु, सब कारज सिध होये
करम जाल भव जाल मे, भक्त फंसे नहि कोये।
करम जाल भव जाल मे, भक्त फंसे नहि कोये।
अर्थ : प्रभु की भक्ति आर्त स्वर में करने से आप के सभी कार्य सफल होंगे।
सांसारिक कर्मों के सभी जाल भक्तों को कमी फाॅंस नहीं सकते हैं।
प्रभु भक्तों की सब प्रकार से रक्षा करते है।
सांसारिक कर्मों के सभी जाल भक्तों को कमी फाॅंस नहीं सकते हैं।
प्रभु भक्तों की सब प्रकार से रक्षा करते है।
दोहा – 2
कबीर हरि भक्ति बिन धिक जीवन संसार
धुवन कासा धुरहरा, बिनसत लागे ना बार।
धुवन कासा धुरहरा, बिनसत लागे ना बार।
अर्थ : कबीर का मत है कि प्रभु की भक्ति के बिना इस संसार में जीवन को धिक्कार है।
यह संसार वो धुआॅं के घर है जो किसी क्षण नाश हो जाता है।
यह संसार वो धुआॅं के घर है जो किसी क्षण नाश हो जाता है।
दोहा – 3
कबीर हरि की भक्ति से, संसय डारा धोये
भक्ति बिना जो दिन गया, सो दिन साले मोये।
भक्ति बिना जो दिन गया, सो दिन साले मोये।
अर्थ : कबीर को प्रभु की भक्ति से सभी संसारिक भ्रम और संशय मिट गये हैं।
जिस दिन वे ईश्वर की उपासना नहीं करते हैं तो उन्हें अत्यधिक कष्ट होता है।
जिस दिन वे ईश्वर की उपासना नहीं करते हैं तो उन्हें अत्यधिक कष्ट होता है।
दोहा – 4
कबीर हरि भक्ति करु, तजि विषय रस चैस
बार बार ना पाईये मानुस जनम की मौज।
बार बार ना पाईये मानुस जनम की मौज।
अर्थ : कबीर कहते है की भक्ति इस तरह करो कि विषय-बासना के भोगों को त्याग कर दो।
इस मानव जीवन को तुम पुनः जनम नहीं कर पावोगे।
इस मानव जीवन को तुम पुनः जनम नहीं कर पावोगे।
दोहा – 5
कबीर हरि की भक्ति का, मन मे बहुत हुलास
मन मंनसा मांजै नहीं, हों चाहत है दास।
मन मंनसा मांजै नहीं, हों चाहत है दास।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि प्रभु भक्ति के लिये हार्दिक मन है लेकिन हमने अपने मन को अच्छी तरह धो-मांज नहीं लिया है
पर हम प्रभु का दास बनना चाहते हैं। मन की शुद्धता के बिना यह संभव नहीं है।
पर हम प्रभु का दास बनना चाहते हैं। मन की शुद्धता के बिना यह संभव नहीं है।
दोहा – 6
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होये
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोये।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोये।
अर्थ : कामी, क्रोधि और लोभी से भक्ति नहीं संभव है।
कोई सूरमा ही वीर होगा जो जाति ,कुल और वर्ण के घमंड को त्यागकर प्रभु की भक्ति कर सकता है।
कोई सूरमा ही वीर होगा जो जाति ,कुल और वर्ण के घमंड को त्यागकर प्रभु की भक्ति कर सकता है।
दोहा – 7
चार च्ंन्ह हरि भक्ति के, परगट देखै देत
दया धरम आधीनता, पर दुख को हरि लेत।
दया धरम आधीनता, पर दुख को हरि लेत।
अर्थ : प्रभु के भक्ति के चार लक्षण हैं जो स्पष्टतः दिखाई देते हैं।
दया,र्धम,गुरु एंव ईश्वर की अधिनता तथ् दुख का तरता-
तब प्रभु उसे अपना लेते है।
दया,र्धम,गुरु एंव ईश्वर की अधिनता तथ् दुख का तरता-
तब प्रभु उसे अपना लेते है।
दोहा – 8
जब लग आसा देह की, तब लगि भक्ति ना होये
आसा त्यागि हरि भज, भक्त कहाबै सोये।
आसा त्यागि हरि भज, भक्त कहाबै सोये।
अर्थ : जब तक हमें अपने शरीर से आसक्ति है तब तक भक्ति संभव नहीं है।
यदि समस्त आशाओं-इच्छााओं को त्याग कर प्रभु की भक्ति करें तो वही वास्तविक भक्त है।
यदि समस्त आशाओं-इच्छााओं को त्याग कर प्रभु की भक्ति करें तो वही वास्तविक भक्त है।
दोहा – 9
जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति ना होये
नाता तोरै हरि भजै, भक्त कहाबै सोये।
नाता तोरै हरि भजै, भक्त कहाबै सोये।
अर्थ : जब तक जाति और वंश का अभिमान है प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती है।
इन सारे संसारिक संबंधों को जो तोड़ देगा वही सच्चा भक्त है।
इन सारे संसारिक संबंधों को जो तोड़ देगा वही सच्चा भक्त है।
दोहा – 10
जल ज्यों प्यारा माछली, लोभी प्यारा दाम
माता प्यारा बालका, भक्ति प्यारी राम।
माता प्यारा बालका, भक्ति प्यारी राम।
अर्थ : जिस प्रकार जल मछली को, धन लोभी मनुष्य को तथा पुत्र अपने माता को प्यारा होता है,
उसी प्रकार भक्त को प्रभु की भक्ति प्यारी होती है।
उसी प्रकार भक्त को प्रभु की भक्ति प्यारी होती है।
दोहा – 11
जाति बरन कुल खोये के, भक्ति करै चित लाय
कहे कबीर सतगुरु मिले, आबागमन नसाये।
कहे कबीर सतगुरु मिले, आबागमन नसाये।
अर्थ : जाति-वर्ण-वंश के विचार से मुक्त होकर पूरे मनोयोग से भक्ति करने से प्रभु की प्राप्ति
और आवागमन एंव पुनर्जन्म से मुक्ति हो सकती है।
और आवागमन एंव पुनर्जन्म से मुक्ति हो सकती है।
दोहा – 12
तिमिर गया रबि देखत, कुमति गयी गुरु ज्ञान
सुमति गयी अति लोभ से, भक्ति गयी अभिमान ।
सुमति गयी अति लोभ से, भक्ति गयी अभिमान ।
अर्थ : अंधकार सूर्य को देखते ही भाग जाता है। गुरु के ज्ञान से मूर्खता का नाश हो जाता है।
अत्यधिक लालच से सुबुद्धि नष्ट हो जाता है और अंहकार से भक्ति का अंत हो जाता है।
अत्यधिक लालच से सुबुद्धि नष्ट हो जाता है और अंहकार से भक्ति का अंत हो जाता है।
दोहा – 13
देखा देखी भक्ति का, कबहुॅ ना चढ़सी रंग
बिपति पराई यों छारसी, केचुली तजत भुजंग।
बिपति पराई यों छारसी, केचुली तजत भुजंग।
अर्थ : दूसरो का देखा-देखी नकल से भक्ति नहीं आ सकती है।
दुख-विपत्ति में लोग भक्ति इस प्रकार छोड़ देते है जैसे साॅंप अपनी केंचुल छोड़ता है।
दुख-विपत्ति में लोग भक्ति इस प्रकार छोड़ देते है जैसे साॅंप अपनी केंचुल छोड़ता है।
दोहा – 14
दया गरीबी दीनता सुमता सील करार
ये लच्छन है भक्ति के कहे कबीर बिचार।
ये लच्छन है भक्ति के कहे कबीर बिचार।
अर्थ : दया, गरीबों पर दीनता, नम्रता,सुख-दुख में समता और सदाचार भक्ति के लक्षण हैं।
कबीर का यह सुविचारित मत है।
कबीर का यह सुविचारित मत है।
दोहा – 15
भक्ति कठिन अति दुर्लभ है, भेस सुगम नित सोये
भक्ति जु न्यारी भेस से येह जाने सब कोये।
भक्ति जु न्यारी भेस से येह जाने सब कोये।
अर्थ : प्रभु भक्ति अत्यंत कठिन और दुर्लभ वस्तु है किंतु इसका भेष बना लेना अत्यंत सरल कार्य है।
भक्ति भेष बनाने से बहुत उत्तम है-इसे सब लोग अच्छी तरह जानते हैं।
भक्ति भेष बनाने से बहुत उत्तम है-इसे सब लोग अच्छी तरह जानते हैं।
दोहा – 16
भक्ति दुहिली राम की, जस खाड़े की धार
जो डोलै सो कटि परै, निश्चल उतरै पार।
जो डोलै सो कटि परै, निश्चल उतरै पार।
अर्थ : राम की भक्ति दुधारी तलवार की तरह है।
जो संसारिक वासना से चंचल मन वाला है, वह कट कर मर जायेगा पर स्थिर बुद्धि वाला इस भव सागर को पार कर जायेगा।
जो संसारिक वासना से चंचल मन वाला है, वह कट कर मर जायेगा पर स्थिर बुद्धि वाला इस भव सागर को पार कर जायेगा।
दोहा – 17
भक्ति गेंद चैगान की, भाबै कोई लेजाये
कहै कबीर कछु भेद नहि, कहा रंक कह राये।
कहै कबीर कछु भेद नहि, कहा रंक कह राये।
अर्थ : भक्ति चैराहे पर रखी गेंद के समान है जिसे वह अच्छा लगे उसे ले जा सकता है।
कबीर कहते हैं कि इसमे अमीर-गरीब,उॅंच-नीच,स्त्री पुरुष,मुर्ख-ज्ञानी का कोई भेद नहीं है।
कबीर कहते हैं कि इसमे अमीर-गरीब,उॅंच-नीच,स्त्री पुरुष,मुर्ख-ज्ञानी का कोई भेद नहीं है।
दोहा – 18
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दसवै भाये
मन तो मैगल होये रहै, कैसे आबै जाये।
मन तो मैगल होये रहै, कैसे आबै जाये।
अर्थ : भक्ति का द्वार अति संर्कीण है। यह राई के दसवें भाग के समान छोटा है।
परंतु मन मदमस्त हाथी की तरह है-यह कैसे उस द्वार से आना-जाना कर पायेगा।
परंतु मन मदमस्त हाथी की तरह है-यह कैसे उस द्वार से आना-जाना कर पायेगा।
दोहा – 19
भक्ति निसानी मुक्ति की, संत चढ़ै सब आये
नीचे बाघिन लुकि रही, कुचल परे कु खाये।
नीचे बाघिन लुकि रही, कुचल परे कु खाये।
अर्थ : प्रभु की भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है। संत इस पर चढ़कर मुक्ति पा जाते हैं
किंतु सीढ़ी के नीचे एक बाधिन छिप कर बैठी है जो फिसलने वाले को खा जाती है।
किंतु सीढ़ी के नीचे एक बाधिन छिप कर बैठी है जो फिसलने वाले को खा जाती है।
दोहा – 20
भक्ति निसानी मुक्ति की, संत चढ़ै सब आये
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताये।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताये।
अर्थ : भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है और संत इसे चढ़ कर मुक्ति पा जाते हैं।
परंतु जिस व्यक्ति ने भक्ति में आलस किया उसे अनेक जन्मों तक पछताना पड़ता है।
परंतु जिस व्यक्ति ने भक्ति में आलस किया उसे अनेक जन्मों तक पछताना पड़ता है।
दोहा – 21
भक्ति प्रान से होत है, मन दे कीजैये भाव
परमारथ परतीती मे, येह तन जाये जाये।
परमारथ परतीती मे, येह तन जाये जाये।
अर्थ : भक्ति करने के लिये प्रण करना पड़ता है और इसके लिये मन और आत्मा लगानी पड़ती है।
प्रभु में विश्वास प्रबल करने में यदि इस शरीर का भी त्याग करना पड़े तो इसे खुशी से जाने दें।
प्रभु में विश्वास प्रबल करने में यदि इस शरीर का भी त्याग करना पड़े तो इसे खुशी से जाने दें।
दोहा – 22
भक्ति भक्ति सब कोई कहै, भक्ति ना जाने भेव
पूरन भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरुदेव।
पूरन भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरुदेव।
अर्थ : भक्ति-भक्ति तो सब कोई कहते है। परंतु भक्ति के रहस्य को कोई नहीं जानता।
पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त होती है जब प्रभु की कृपा होती है।
पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त होती है जब प्रभु की कृपा होती है।
दोहा – 23
भक्ति बीज है प्रेम का, परगट पृथ्वी माहि
कहै कबीर बोया घना निपजै कोई ऐक ठाहि।
कहै कबीर बोया घना निपजै कोई ऐक ठाहि।
अर्थ : भक्ति बीज है प्रेम का- इसे प्रत्यक्ष पृथ्वी पर देखते हैं।
कबीर कहते है कि उन्होंनेे बीज बहुत धना बोया पर कहीं-कहीं अंकुरित हुआ।
विरले लोगों में भक्ति का बीज उपज पाता है।
कबीर कहते है कि उन्होंनेे बीज बहुत धना बोया पर कहीं-कहीं अंकुरित हुआ।
विरले लोगों में भक्ति का बीज उपज पाता है।
दोहा – 24
भाव बिना नहि भक्ति जग, भक्ति बिना नहि भाव
भक्ति भाव ऐक रुप है, दोउ ऐक सुभाव।
भक्ति भाव ऐक रुप है, दोउ ऐक सुभाव।
अर्थ : विश्वास और प्रेम बिना भक्ति निरर्थक और भक्ति के बिना विश्वास और प्रेम वेकार है।
भक्ति और प्रेम का स्वरुप और स्वभाव एक है।
भक्ति और प्रेम का स्वरुप और स्वभाव एक है।
दोहा – 25
सतगुरु की कृपा बिना, सत की भक्ति ना होये
मनसा बाचा करमना, सुनि लिजौ सब कोये।
मनसा बाचा करमना, सुनि लिजौ सब कोये।
अर्थ : बिना ईश्वर की कृपा के संतो के प्रति भक्ति भाव नहीं हो सकता है।
प्रभु एंव संत के प्रति मन,वचन और कर्म से यह भक्ति होनी चाहिये। इसे सब लोगों को सुन और जान लेना चाहिये।
प्रभु एंव संत के प्रति मन,वचन और कर्म से यह भक्ति होनी चाहिये। इसे सब लोगों को सुन और जान लेना चाहिये।
दोहा – 26
मन की मनसा मिटि गयी, दुरुमति भयी सब दूर
जब मन प्यारा राम का, नगर बसै भरपूर।
जब मन प्यारा राम का, नगर बसै भरपूर।
अर्थ : जब मन की इच्छायें-तृष्णायें मिट जाती है तो मन के सारे विकार भी मिट जाते हैं।
जब लोग प्रभु के प्यारे हो जाते हैं तो राम का निवास लोगों के हृदय नगर में रहता है।
जब लोग प्रभु के प्यारे हो जाते हैं तो राम का निवास लोगों के हृदय नगर में रहता है।
दोहा – 27
सांच शब्द खाली करै, आपन होये अयान
सो जीव मन मुखी भये, कलियुग के वर्तमान।
सो जीव मन मुखी भये, कलियुग के वर्तमान।
अर्थ : जब लोग सच्चे उपदेशों को भी व्यर्थ समझने लगते हैं और लोग चतुर चालाक हो जाते हैं तो लोग अपने मनोन्मुखी हो जाते हैं।
यही कलियुग का वत्र्तमान यथार्थ है।
यही कलियुग का वत्र्तमान यथार्थ है।
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