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फासले – Distance

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एक स्त्री ने एक छोटी सी किताब लिखी है — एक छोटे बच्चे के साथ बच्चा होकर रहने की। उस स्त्री की उम्र तो सत्तर साल है। सत्तर साल की स्त्री ने एक छोटा – सा प्रयोग किया है, एक पांच साल के बच्चे के साथ दोस्ती करने का। मुश्किल है बहुत। पांच साल के बच्चे का बाप होना आसान है, मां होना आसान है, भाई होना आसान है, गुरु होना आसान है, दोस्त होना बहुत मुश्किल है। कोई मां, कोई बाप दोस्त नहीं हो पाता। जिस दिन दुनिया में मां – बाप बच्चों के दोस्त हो सकेंगे, उस दिन हम दुनिया को आमूल बदल देंगे। यह दुनिया बिलकुल दूसरी हो जाएगी। यह दुनिया इतनी कुरूप, इतनी बदशक्ल नहीं रह जाएगी। उस स्त्री ने सच में एक अदभुत प्रयोग किया। उसने वर्षों तक वह प्रयोग किया। एक तीन साल के बच्चे से दोस्ती करनी शुरू की और पांच साल के बच्चे तक, दो साल की उम्र तक निरंतर दो साल उससे सब तरह की दोस्ती निभाई। उसकी दोस्ती का ख्याल थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। वह सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री उस बच्चे के साथ, जो उसका दोस्त है, समुद्र के तट पर गई है। बच्चा दौड रहा है, कंकड़ – पत्थर बीन रहा है, तो वह भी दौड़ रही है, कंकड़ – पत्थर बीन रही है। क्योंकि बच्चे और उसके बीच जो एज बैरियर है, जो आयु का बड़ा भारी व्यवधान है, वह टूटेगा कैसे! फिर वह कंकड़ – पत्थर ऐसे नहीं बीन रही है कि सिर्फ दोस्ती बढ़ाने के लिए है। वह सच में उन कंकड़ों – पत्थरों को उस आनंद से देखने की कोशिश कर रही है, जिस से बच्चा देख रहा है। वह बच्चे की भी आंखें देखती है, अपनी आंखें भी देखती है, कंकड़ को भी देखती है, बच्चे का हाथ भी देखती है, अपना हाथ भी देखती है। बच्चा जिस पुलक से भरा है, वह क्या देख रहा है उन पत्थरों में, फिर वह बच्चा होकर देखने की कोशिश कर रही है। बच्चा जाकर समुद्र की झाग को पकड़ रहा है, फेन को पकड़ रहा है, तो वह भी पकड़ रही है। बच्चा तितलियों के पीछे दौड़ रहा है, तो वह भी दौड़ रही है। रात दो बजे बच्चा उठ आया और उसने उससे कहा कि चलें बाहर, झींगुरों की आवाज बहुत अच्छी आ रही है। तो उसने यह नहीं कहा कि सो जाओ। यह रात उठने की नहीं है। वह बच्चे के साथ हो ली है। और कहीं झींगुरों की आवाज न टूट जाए, इसलिए बच्चा संभलकर चल रहा है एक – एक कदम, तो वह भी संभलकर उसके पीछे चल रही है। दो साल की यह दोस्ती अनूठे परिणाम लाई। और उस स्त्री ने लिखा है कि मैं भूल गई कि मैं सत्तर साल की हूं। और मैंने जो पांच साल का होकर कभी नहीं जाना था, वह सत्तर साल में पांच साल का होकर जाना। सारी दुनिया एक वंडर लैंड बन गई, सारा जगत परियों का जगत हो गया। मैं सच में दौड़ने लगी और पत्थर बीनने लगी और तितलियां पकड़ने लगी। उस बच्चे और मेरे बीच सारे आयु के फासले चले गए। वह बच्चा मुझसे ऐसी ही बातें करने लगा जैसे कि एक बच्चे से करता है। मैं उस बच्चे से ऐसी बातें करने लगी जैसे एक बच्चा बच्चे से करता है। उसने पूरी किताब लिखी है अपने दो साल के अनुभवों की, सेंस आफ वंडर। और उसमें उसने लिखा है कि मैंने फिर से पा लिया आश्चर्य का भाव। अब मैं कह सकती हूं कि कहीं भी बड़े से बड़े संत ने अगर कुछ भी पाया होगा, तो इससे ज्यादा नहीं हो सकता, जो मुझे दिखाई पड़ रहा है। – ओशो”

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