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द्रुपद का पुत्रेष्टि यज्ञ – Drupada’s Putreshti Yagya

प्राचीन भारत में पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करने की प्रथा थी|

जब किसी बहुत बड़े नृपति को संतान का अभाव दुख देता था, तो वह ऋषियों और महात्माओं के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ कराता था|

यज्ञ के कुंड से हवि बाहर निकलती थी|

उस हवि को खाने से मनचाहे पुत्र की प्राप्ति होती थी|

पांचाल देश के नृपति के कई पुत्र थे, फिर भी उन्होंने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए पुतेष्टि यज्ञ कराया था|

उन्होंने पुत्र होने पर भी पुतेष्टि यज्ञ क्यों कराया था – इस बात को नीचे की कहानी में जानिए –

हरिद्वार के निकट एक बहुत बड़े महात्मा रहते थे|

महात्मा का नाम भरद्वाज था|

भरद्वाज बहुत बड़े ज्ञानी थे|

आत्मा और परमात्मा के भेदों के ज्ञाता था|

प्रभात के पश्चात का समय था|

भरद्वाज गंगा के तट पर विचरण कर रहे थे|

सहसा उनकी दृष्टि एक युवती पर पड़ी|

वह युवती घृताची नामक अप्सरा थी|

वह गंगा के जल में नहाकर बाहर निकली थी|

हवा चल रही थी|

हवा के कारण उसके शरीर का कामोत्तेजक अंग खुल गया|

संयोग की बात, भरद्वाज की दृष्टि उस अंग पर पड़ गई|

उनके भीतर काम पैदा हो गया|

काम इतने जोरों से पैदा हो गया कि वे स्खलित हो गए|

भरद्वाज जी ने अपने वीर्य को द्रोण के कलश में सुरक्षित रख दिया|

द्रोण के कलश का अर्थ होता है, पत्तों से बना हुआ दोना|

भरद्वाज जी के उसी सुरक्षित वीर्य से एक पुत्र का जन्म हुआ|

उन्होंने अपने उस पुत्र का नाम द्रोण रखा|

उन्हीं दिनों पांचाल देश के नृपति पुषत के यहां भी एक पुत्र ने जन्म लिया था|

उन्होंने अपने पुत्र का नाम द्रुपद रखा|

बाल्यावस्था में द्रुपद और द्रोण में परस्पर मित्रता थी|

दोनों साथ-साथ पढ़ते थे|

बड़े होने पर द्रुपद तो पांचाल के राजसिंहासन पर बैठा, किंतु द्रोण ब्राह्मण होने के कारण गरीब ही रहे|

गरीबी के कारण उनका जीवन बड़ी कठिनाई से बीत रहा था|

एक बार द्रोण के कानों में समाचार पड़ा कि परशुराम धन बांट रहे हैं|

अत: द्रोण परशुराम के पास गए|

उन्होंने उनसे धन की याचना की|

परशुराम ने कहा, “मैं तो सारा धन लुटा चुका हूं, वन में तप के लिए जा रहा हूं|

मेरे पास धनुष-बाण को छोड़कर और कुछ नहीं है|

द्रोण ने निवेदन किया, “मुझे धनुष-बाण ही दे दीजिए और यह बता दीजिए कि कौन-सा बाण किस तरह चलाया जाता है|

” परशुराम ने द्रोण को धनुष-बाण तो दे ही दिया, अपनी पूरी बाण विद्या भी सिखा दी|

द्रोण उस विद्या को सीखकर द्रोणाचार्य बन गए|

दूसरी बार द्रोण के कानों में समाचार पड़ा कि द्रुपद धन बांट रहा है|

अत: द्रोण धन के लिए द्रुपद के पास गए|

उन्होंने द्रुपद से प्रार्थना की, “मैं तुम्हारा मित्र हूं, अतीव संकट में हूं|

मुझे धन देकर मेरी सहायता करो|

द्रुपद ने बड़ी ही उपेक्षा के साथ उत्तर दिया, “मैं राजा हूं|

राजा का मित्र कोई राजा ही होता है|

तुम मेरे मित्र किस प्रकार हो?

तुम गरीब ब्राह्मण हो|

मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता|

द्रोण का हृदय अपमान से भर उठा|

वे द्रुपद से बदला लेने का निश्चय करके लौट गए|

जब वे पांडव और कौरव राजकुमारों के गुरु बने तो उन्होंने अर्जुन के द्वारा द्रुपद को बंदी बनाकर अपने मन की आग को शांत किया|

उस समय तो द्रुपद मौन ही रहा, किंतु उसके मन में भी द्रोणाचार्य से बदला लेने का विचार पैदा हो उठा|

उसने निश्चय किया कि वह एक ऐसा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करेगा जो द्रोणाचार्य से उसके अपमान का बदला लेगा|

द्रुपद के जो पुत्र थे, वे द्रोणाचार्य से बदला लेने में असमर्थ थे|

अत: द्रुपद ने पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा महान तेजस्वी पुत्र को पैदा करने का संकल्प लिया|

पुतेष्टि यज्ञ कराने के लिए वह महात्माओं की खोज करने लगा|

गंगा और यमुना के किनारों पर घूमने लगा|

दैव-इच्छा से द्रुपद यमुना के किनारे स्थित दो महान त्यागी ब्राह्मण बंधुओं के आश्रम में पहुंचा|

छोटे बंधु का नाम उपयज्ञ और बड़े बंधु का नाम यज्ञ था|

दोनों भाई अलग-अलग आश्रम बनाकर रहते थे|

द्रुपद छोटे भाई के आश्रम में रहकर उनकी सेवा करने लगा|

जब सेवा करते-करते काफी दिन बीत गए तो एक दिन अवसर पाकर द्रुपद ने निवेदन किया, “मैं एक महान तेजस्वी पुत्र चाहता हूं|

कृपया पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा मुझे तेजस्वी पुत्र दिलाइए|

मैं आपको एक करोड़ गाएं दे सकता हूं|

” छोटे भाई ने उत्तर दिया, “यह कार्य मुझसे नहीं हो सकेगा|

तुम मेरे बड़े भाई के पास जाओ|

वे अवश्य तुम्हारी मनोभिलाषा पूर्ण करेंगे|

” द्रुपद यज्ञ के आश्रम में गया|

उसने यज्ञ के आश्रम में रहकर उनकी भी बड़ी सेवा की|

एक दिन अवसर पाकर द्रुपद ने उनसे भी निवेदन किया, “मैं एक तेजस्वी पुत्र चाहता हूं|

कृपा करके पुतेष्टि यज्ञ के द्वारा मुझे तेजस्वी पुत्र दिलाइए|

मैं आपको एक अर्बुद गाएं दे सकता हूं|

यह द्रवित हो गए|

वे पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे|

जब यज्ञ पूर्ण हुआ, तो उन्होंने एक हवि तैयार की|

उन्होंने द्रुपद की रानी को बुलाकर कहा, “इस कवि को खा लो|

तुम्हारे गर्भ से महान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा|

” द्रुपद की रानी ने कहा, “मैंने अभी स्नान नहीं किया है|

स्नान करने के बाद ही हवि ग्रहण करूंगी|

” रानी स्नान करने के लिए चली गई|

यज्ञ उसकी प्रतीक्षा करने लगे|

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जब रानी के आने में देर होने लगी तो उन्होंने उस हवि को यज्ञ कुंड में डाल दिया|

आश्चर्य ! यज्ञ कुंड से एक बालक और एक बालिका प्रकट हो उठी|

यज्ञ ने बालक और बालिका को द्रुपद को सौंप दिया|

उन्होंने कहा, “राजन ! इस बालक का नाम धृष्टद्युम्न होगा|

यह आपकी अभिलाषा को पूर्ण करेगा|

बालिका का नाम कृष्णा होगा|

इसे लोग द्रौपदी और पांचाली भी कहेंगे|

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इसके ही द्वारा कौरवों का सर्वनाश होगा|

द्रुपद ने बड़े प्यार से बालक और बालिका का पालन-पोषण किया|

समय आने पर यज्ञ का कथन सत्य सिद्ध हुआ|

महाभारत के युद्ध में धृष्टद्युम्न के हाथों द्रोणाचार्य मारे गए थे|

द्रौपदी ही कौरवों के विनाश का कारण हुई थी|

यदि दु:शासन भरी सभा में द्रौपदी को नग्न करने को प्रयत्न न करता, तो महाभारत का युद्ध न होता और यदि महाभारत का युद्ध न होता, तो कौरवों के वंश का दीपक भी न बुझता|

पर होनहार को कौन रोक सकता है?

जो होने वाला होता है, वह होकर रहता है|

Note:- इन कहानियों मे प्रयोग की गई सभी तस्वीरों को इंटरनेट से गूगल सर्च और बिंग सर्च से डाउनलोड किया गया है।

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