चंचल मन – Fickle Mind
चंचल मन
ये मन भी कितना चंचल है|
प्रकाश की गति से भी तेज, बहुत तेज चलता है|
या ये कहूँ कि दौड़ता है |
इसकी चंचलता का क्या बखान करूँ, ये इस पल में तो मेरे साथ होता है और कहीं पलक झपकते ही, ये हजारों कोसों दूर किसी समुंदर में गोते लगाती मछलियों के साथ तैरता नज़र आता है|
मैं कई बार इसे समझा बुझाकर वापस लेकर आती हूँ |
फिर भी मुझे बस यह एक झलक दिखाकर दोबारा धोका देकर निकल जाता है, फिर कहीं किसी दूसरी दुनिया की सैर करने के लिए|
कभी ये आकाश में उड़ते परिंदे के साथ हवा के साथ अठखेलियां करता है, तो कभी हिमालय सी ऊंची पर्वत की चोटी पर खड़े होकर मुझे जीभ चिडाता नज़र आता है, कभी नेता के साथ खुद को किसी मंच पर भाषण देता हुआ गर्व महसूस करता है, तो कभी किसी फ़िल्मी कलाकार के साथ तस्वीर लेने के लिए उत्साहित होता नज़र आता है|
वाकई यह मन कितना चंचल है |
मना करते करते भी ना जाने कहाँ कहाँ चला जाता है|
बस इसी तरह दौड़ता हुआ आज यह मन एक छोटे से घर में जा पंहुचा |
मैंने इस बार भी मना किया था इसे कि दूसरों के घरो में नहीं झाँका करते, पर इसने क्या आज तक मेरी सुनी थी जो ये आज सुनने वाला था |
ये तो चल पड़ा था रोज की तरह अपने सुनहरे सफ़र की तलाश में, इसी चाह में कि शायद आज उसे इस घर से किसी के चूल्हे पर पकी मक्के की रोटी की सोंधी सी खुशुबू आ जाये|
पर ये क्या था आज तो ये दौड़ता हुआ सा मन अचानक इतना विचलित कैसे हो गया, क्यों दौड़ता दौड़ता ये अचानक थम सा गया|
मैंने तो इसे आज इसे अभी वापस अपनी दुनिया में आने को टोका भी न था|
न ही मैंने इसे इसकी गति को विराम लगाने का कोई आदेश दिया था|
फिर क्या हुआ?
अचानक इतना मायूस क्यों नज़र आने लगा?
ओह ! तो आज इसने जीवन की सच्चाई देख ली|
शायद ये उस घर में रुक गया जिसमें एक छोटा सा बच्चा भूख से तिलमिलाता हुआ अपनी माँ की गोद में आकर बैठा है|
उसकी माँ चाहती तो है कि वो एक पल में अपने दिल के टुकड़े को दूध का कटोरा लाकर कहीं से दे दे |
लेकिन दूध तो क्या एक चावल का दाना भी तो न था उसके पास|
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ये मन आज गलत पते पर आ गया था शायद, मक्के की रोटी की सोंधी खुसबू सूंघने को|
उसे क्या पता था कि यहाँ मक्के की रोटी तो क्या एक मक्का का दाना भी न था। कुछ पल माँ ने अपने लाडले को समझाया और देखो माँ तो माँ होती है|
उसकी प्यारी बातें उस भूख से लड़ते बच्चे को सब भूला देती हैं |
एक पल तो ये सोचता है कि ऐसा क्या था जो अब ये रोता नहीं ?
क्यों भूख से बिलखता नहीं?
उसने उस नन्हे से बालक के मन को भी टटोलने का प्रयास किया |
पर ये क्या?
ये तो इससे भी कहीं तेज गति से दौड़ रहा था |
भला मेरा मन इस नन्हे बालक के मन से कहाँ कोई प्रतियोगिता जीत सकता था|
ये तो परियो से बातें कर रहा था, तो कही सौरमंडल के चारों ओर चक्कर लगा लगाकर अपने दोस्तों को चिड़ा रहा था|
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अरे ये क्या ये तो उन टिम टिम करते हुए तारों से बातें भी करने लगा है.|
और इसके मन की गति का तो कोई तोड़ ही नहीं है |
एक पलक झपकते ही ये तो अन्तरिक्ष से सीधे समुंदर की गहराइयों तक भी पहुँच जाता है|
देखो तो कैसे यह उस पांच पैर वाली अद्भुत मछली से आँख मिचोली खेलने लगा है |
कितना खुश है ये तो |
मेरे मन में हीनता की भावना आने लगी कि ये तो मुझसे भी ऊंची छलांगे लगाता है|
ये तो मुझसे भी चोटी छोटी पर चढ़ जाता है|
लेकिन तभी अचानक ये क्या?
इस नादान का मन तो किसी के घर में जाकर रुक गया |
जहाँ इसके घर की तरह ही एक मिटटी का चूल्हा है|
एक माँ है |
और एक बेटा भी |
यहाँ सब कुछ अपना सा है पर बस एक अन्तर है |
यहाँ वो मिटटी के चूल्हे पर सिकती हुई मक्के की रोटी की सोंधी-सोंधी खुसबू आती है|
और इस नन्हे से बालक का मन फिर से शांत, उदास और मायूस हो जाता है |
और फिर मेरे मन का भी|
अब इसका भी दौड़ने का मन नहीं करता, अब कही भी नहीं करता |
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