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गायत्री मन्त्र अथर्ववेद के अनुसार – Gayatri Mantra According To Atharvaveda

वेदमाता के पावन अनुग्रह से हमें वैदिक तत्वज्ञान का अमृत – प्राशन करने का सुअवसर प्राप्त हो, यही हम सबके हृदय की एक मात्र कामना है – क्योंकि अथर्ववेद के अनुसार इसी से हमारी अन्य सभी इच्छाओं की परिपूर्ति हो जायेगी –

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स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्‍।

आयु: प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्तवा व्रजत ब्रह्मलोकम् ॥

मैंने वरदायिनी वेदमाता की स्तुती की है। यह हम सबको पवित्र करने वाली है। हमारी प्रार्थना है कि यह उन सबको पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करे, जो मानवीय संस्कारों से संपन्न हैं। यह हमें लम्बी आयु, प्राणशक्ति, श्रेष्ठ संतानें, पशु समृद्धि तथा ब्रह्मतेज प्रदान करे और अन्त में ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराये ।

अथर्ववेद के अनुसार वास्तव में गायत्री ही वेदमाता है। इस गायत्री मंत्र से हम सभी सुपरिचित हैं, जो इस प्रकार है –

ओऽम् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो न: प्रचोदयात्‍॥

मन्त्र का सामान्य अर्थ इस प्रकार है –

हम सभी (सवितु: देवस्य) सबको प्रेरित करने वाले देदीप्यमान सविता (सूर्य) देवता के (तत्‍) उस सर्वव्यापक (वरेण्यम्‍) वरण करने योग्य अर्थात्‍ अत्यन्त श्रेष्ठ (भर्ग:) भजनीय तेज का (धीमहि) ध्यान करते हैं, (य:) जो (न:) हमारी (धिय:) बुद्धियों को (प्रचोदयात्‍) सन्मार्ग की दिशा में प्रेरित करता रहता है।

इस मन्त्र को गायत्री मन्त्र इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह गायत्री छन्द में निबद्ध है। ‘गायत्री’ का शाब्दिक अर्थ है गायक की रक्षा करने वाली – ‘गायन्तं त्रायते’ यह वेद का प्रथम छन्द है जिसमें २४ अक्षर और तीन पाद होते हैं। इसके प्रत्येक पाद में आठ-आठ अक्षर होते हैं। इस मन्त्र को देवता के आधार पर सावित्री मन्त्र भी कहा जाता है, क्योंकि इसके देवता सविता हैं। सामान्य रूप से सविता सूर्य का ही नामान्तर है, जो मानव जीवन को सार्वाधिक प्रभावित करने वाले देवता हैं। अधिक गहराई में जाने पर सविता को सूर्य-मण्डल के विभिन्न देवों में से एक माना जा सकता है।

गायत्री मन्त्र हमारी परम्परा में सर्वाधिक पवित्र और उत्प्रेरक मन्त्र है। इसका जप करते समय भगवान्‍ सूर्य के अरूण अथवा बालरूप का ध्यान करना चाहिये। जप करते समय मन्त्र के अर्थ का भलीभाँति मनन करना चाहिये, जैसा कि महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है – ‘तज्जपस्तदर्थभावनम्‍।’ किसी भी मन्त्र के जप का अभिप्राय है बार – बार उसके अर्थ की भावना करना, उसे मन और मस्तिष्क में बैठाना । किसी न किसी सन्दर्भ में, यह मन्त्र चारों वेदों में प्राप्त हो जाता है। परम्परा के अनुसार इस मन्त्र का साक्षात्कार सर्वप्रथम महर्षि विश्वामित्र ने किया था। वही इस मन्त्र के द्र्ष्टा अथवा ऋषि हैं। वैदिक पारम्परिक मान्यता के अनुसार वेद-मन्त्रों का कोई रचियता नहीं है। सृष्टि के प्रारम्भ, समाधि अथवा गम्भीर ध्यान की अवस्था में ये ऋषियों के अन्त:करण में स्वयं प्रकट हुए थे। जिस ऋषि ने जिस मन्त्र का दर्शन किया, वही उसका द्रष्टा हो गया। इस मन्त्र का जप विश्व भर में व्याप्त किसी भी उपासना-सम्प्रदाय का कोई भी अनुयायी कर सकता है, क्योंकि बुद्धि की प्रेरणा की आवश्यकता तो सभी समान रूप से अनुभव करते हैं। हाँ, ध्यानजप करने से पूर्व शारीरिक शुद्धि कर लेना आवश्यक है।

किसी भी वेदमन्त्र का उच्चारण करने से पूर्व ‘ओऽम्‍’ का उच्चारण करना आवश्यक है। ‘ओऽम्‍’ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है – इसमें तीन वर्ण हैं – अकार, उकार और मकार। ‘ओऽम्‍’ के मध्य में लगी तीन (३) की संख्या इसके त्रिमात्रिक अथवा प्लुत उच्चारण की द्योतक है। स्वरों के हृस्व और दीर्घ उच्चारण से हम सभी परिचित हैं – लेकिन वेद में इसके आगे प्लुत उच्चारण की व्यवस्था भी है। हृस्वास्वर के उच्चारण में यदि एक मात्रा का काल लगता है, तो प्लुत में तीन मात्राओं का काल लगता है। ‘ओऽम्‍’ अथवा ओड्‍कार भी विश्व के प्राय: सभी धार्मिक मतों में किसी – न – किसी प्रकार से विद्यमान है ।

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‘भू:’, ‘भुव:’ और ‘स्व:’ – ये तीन महाव्याहृतियाँ हैं। ये तीनों शब्द क्रमश: पृथिवी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग अथवा द्युलोक के वाचक हैं।

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