Kabir ke Dohe
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ज्ञानी – कबीर – दोहा

दोहा – 1

छारि अठारह नाव पढ़ि छाव पढ़ी खोया मूल
कबीर मूल जाने बिना,ज्यों पंछी चनदूल।

अर्थ : जिसने चार वेद अठारह पुरान,नौ व्याकरण और छह धर्म शास्त्र पढ़ा हो उसने मूल तत्व खो दिया है।
कबीर मतानुसार बिना मूल तत्व जाने वह केवल चण्डूल पक्षी की तरह मीठे मीठे बोलना जानता है। मूल तत्व तो परमात्मा है।

दोहा – 2

कबीर पढ़ना दूर करु, अति पढ़ना संसार
पीर ना उपजय जीव की, क्यों पाबै निरधार।

अर्थ : कबीर अधिक पढ़ना छोड़ देने कहते हैं। अधिक पढ़ना सांसारिक लोगों का काम है।
जब तक जीवों के प्रति हृदय में करुणा नहीं उत्पन्न होता,निराधार प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी।

दोहा – 3

ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पंडित कवि अनेक
राम रटा निद्री जिता, कोटि मघ्य ऐक।

अर्थ : ज्ञानी और ज्ञाता बहुतों मिले। पंडित और कवि भी अनेक मिले।
किंतु राम का प्रेमी और इन्द्रियजीत करोड़ों मे भी एक ही मिलते हैं।

दोहा – 4

पंडित पढ़ते वेद को, पुस्तक हस्ति लाद
भक्ति ना जाने राम की, सबे परीक्षा बाद।

अर्थ : पंडित वेदों को पढ़ते है। हाथी पर लादने लायक ढ़ेर सारी पुस्तकें पढ़ जाते हैं।
किंतु यदि वे राम की भक्ति नहीं जानते हैं-तो उनका पढ़ना व्यर्थ है और उनकी परीक्षा बेेकार चली जाती है।

दोहा – 5

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर तप जु जगत का, घड़ी ना परती सान।

अर्थ : पढ़ते विचारते लोग रोगी हो जाते है। मन में अभिमान भी बहुत बढ़ जाता है।
किंतु मन के भीतर सांसारिक बिषयों का ताप एक क्षण को भी शांति नहीं देता।

दोहा – 6

पढ़ि पढ़ि और समुझाबै, खोजि ना आप शरीर
आपहि संसय मे परे, यूॅं कहि दास कबीर।

अर्थ : पढ़ते-पढ़ते और समझाते भी लोग अपने शरीर को मन को नहीं जान पाता हैं।
वे स्वयं भ्रम में पड़े रहते हैं। अधिक पढ़ना व्यर्थ है। अपने अन्तरात्मा को पहचाने।

दोहा – 7

पढ़ि गुणि ब्राहमन भये, किरती भई संसार
बस्तु की तो समझ नहीं, ज्यों खर चंदन भार।

अर्थ : पढ़ लिख कर ब्राहमण हो गये और संसार में उसकी कीर्ति भी हो गई किंतु उसे वास्तविकता और सरलता
की समझ नहीं हो सकी जैसे गद्हे को चंदन का महत्व नहीं मालूम रहता है। पढ़ना और गदहे पर चंदन का बोझ लादने के समान है।

दोहा – 8

ब्राहमिन गुरु है जगत का, संतन का गुरु नाहि
अरुझि परुझि के मरि गये, चारों वेदो माहि।

अर्थ : ब्राहमण दुनिया का गुरु हो सकता है पर संतो का गुरु नहीं हो सकता
ब्राहमण चारों वेदों में उलझ-पुलझ कर मर जाता हैं पर उन्हें परमात्मा के सत्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है।

दोहा – 9

चतुराई पोपट पढ़ी, परि सो पिंजर माहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझेये नाहि।

अर्थ : चालाकी और चतुराई व्यर्थ है। जिस प्रकार तोता पढ़कर भी पिंजड़े में बंद रहता है।
पढ़ाकू पढ़ता भी है और उपदेश भी करता है परंतु स्वयं कुछ भी नहीं समझता।

दोहा – 10

कबीर पढ़ना दूर करु, पोथी देहु बहाइ
बाबन अक्षर सोधि के, राम नाम लौ लाइ।

अर्थ : कबीर का मत है कि पढ़ना छोड़कर पुस्तकों को पानी मे प्रवाहित कर दो।
बावन अक्षरों का शोधन करके केवल राम पर लौ लगाओ और परमात्मा पर ही ध्याान केंद्रित करों।

दोहा – 11

कलि का ब्राहमिन मसखरा ताहि ना दीजय दान
कुटुम्ब सहित नरकै चला, साथ लिया यजमान।

अर्थ : कलियुग का ब्राहमण जोकर सदृश्य है। उसे कोई दान-दक्षिणा मत दें।
वह स्वयं तो अपने परिवार के साथ नरक जायेगा ही अपने यजमान को भी साथ नरक लेता जायेगा-क्याोंकि वह पाखंडी होता है।

दोहा – 12

पढ़ि पढ़ि जो पत्थर भया, लिखि लिखि भया जु चोर
जिस पढ़ने साहिब मिले, सो पढ़ना कछु और।

अर्थ : आदमी पढ़ते-पढ़ते पथ्थर जैसा जड़ और लिखते-लिखते चोर हो गया है।
जिस पढ़ाई से प्रभु का दर्शन सम्भव होता है-वह पढ़ाई कुछ भिन्न प्रकार का है। हमें सत्संग ज्ञान की पढ़ाई पढ़नी चाहिये।

दोहा – 13

ब्राहमन से गदहा भला, आन देब ते कुत्ता
मुलना से मुर्गा भला, सहर जगाबे सुत्ता।

अर्थ : मुर्ख ब्राम्हण से गदहा अच्छा है जो परिश्रम से घास चरता है। पथ्थर के देवता से कुत्ता अच्छा है जो
घर का पहरा देकर रक्षा करता है। एक मौलवी से मुर्गा अच्छा है जो सोये शहर को जगाता है।

दोहा – 14

हरि गुन गाबै हरशि के, हृदय कपट ना जाय
आपन तो समुझय नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय।

अर्थ : अपने हृदय के छल कपट को नहीं जान पाते हैं। खुद तो कुछ भी नहीं समझ
पाते है परन्तु दूसरों के समक्ष अपना ज्ञान बघारते है।

दोहा – 15

पढ़ि पढ़ाबै कछु नहीं, ब्राहमन भक्ति ना जान
व्याहै श्राधै कारनै, बैठा सुन्दा तान।

अर्थ : ब्राहमण पढ़ते पढ़ाते कुछ भी नहीं हैं और भक्ति के विषय में कुछ नहीं जानते हैं
पर शादी व्याह या श्राद्धकर्म कराने में लोभ वश मुॅंह फाड़ कर बैठे रहते हैं।

दोहा – 16

पढ़ि गुणि पाठक भये, समुझाये संसार
आपन तो समुझै नहीं, बृथा गया अवतार।

अर्थ : पढ़ते और विचारते विद्वान तो हो गये तथा संपूर्णसंसार को समझाने लगे
किंतु स्वयं को कुछ भी समझ नहीं आया और उनका जन्म व्यर्थ चला गया।

दोहा – 17

कबीर ब्राहमन की कथा, सो चोरन की नाव
सब मिलि बैठिया, भावै तहं ले जाइ।

अर्थ : कबीर के अनुसार अविवेकी ब्राम्हण की कथा चोरों की नाव की भांति है।
पता नहीं अधर्म और भ्रम उन्हें कहाॅं ले जायेगा?

दोहा – 18

नहि कागद नहि लेखनी, नहि अक्षर है सोय
बाांचहि पुस्तक छोरिके, पंडित कहिय सोय।

अर्थ : बिना कागज,कलम या अक्षर ज्ञान के पुस्तक छोड़कर जो संत आत्म-चिंतन
और मनन करता है उसे हीं पंडित कहना उचित है।

दोहा – 19

पढ़ते गुनते जनम गया, आशा लगि हेत
बोया बिजहि कुमति ने, गया जु निरमल खेत।

अर्थ : पढ़ते विचारते जन्म बीत गया किंतु संसारिक आसक्ति लगी रही।
प्रारम्भ से कुमति के बीजारोपण ने मनुष्य शरीर रुपी निर्मल खेत को भी बेकार कर दिया।

दोहा – 20

पढ़ना लिखना चातुरी, यह तो काम सहल्ल
काम दहन मन बसिकरन गगन चढ़न मुस्कल्ल।

अर्थ : पढ़ना लिखना चतुराई का आसान काम है किंतु इच्छाओं और वासना का
दमन और मन का नियंत्रण आकाश पर चढ़ने की भांति कठिन है।

दोहा – 21

पढ़ै गुणै सिखै सुनै, मिटी ना संसै सूल
कहै कबीर कासो कहूॅं, ये ही दुख का मूल।

अर्थ : सुनने,चिंतन,सीखने और पढ़ने से मन का भ्रम नहीं मिटा।
कबीर किस से कहें कि समस्त दुखों का मूल कारण यही है।

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