चाकू या कैंची? – Knife Or Scissors?
एक बड़ी प्रसिद्ध हंगेरियन कहानी है कि एक आदमी का विवाह हुआ। झगडैल प्रकृति का था, जैसे कि आदमी सामान्यत: होते हैं। मां बाप ने यह सोचकर कि शायद शादी हो जाए तो यह थोड़ा कम क्रोधी हो जाए, थोड़ा प्रेम में लग जाए, जीवन में उलझ जाए तो इतना उपद्रव न करे, शादी कर दी।शादी तो हो गई। और आदमी झगडैल होते हैं, उससे ज्यादा झगडैल स्त्रियां होती हैं।मां बाप लड़की के भी यही सोचते थे कि विवाह हो जाए, घर गृहस्थी बने, बच्चा पैदा हो, सुविधा हो जाएगी। उलझ जाएगी, तो झगड़ा कम हो जाएगा। लेकिन जहां दो झगडैल व्यक्ति मिल जाएं, वहां झगड़ा कम नहीं होता; दो गुना भी नहीं होता; अनंत गुना हो जाता है। जब दो झगड़ैल व्यक्ति मिलते हैं, तो जोड़ नहीं होता गणित का; दो और दो चार, ऐसा नहीं होता, गुणनफल हो जाता है। पहली ही रात, सुहागरात, पहली ही—भेंट में जो चीजें आई थीं, उनको खोलने को दोनों उत्सुक थे—पहला डब्बा हाथ में लिया; बड़े ढंग से पैक किया गया था। पति ने कहा कि रुको, यह रस्सी ऐसे न खुलेगी। मैं अभी चाकू ले आता हूं। पत्नी ने कहा कि ठहरो, मेरे घर में भी बहुत भेंटें आती रहीं। हम भी बहुत भेंटें देते रहे हैं। तुमने मुझे कोई नंगे—लुच्चो के घर से आया हुआ समझा है?
ऐसे सुंदर फीते चाकुओं से नहीं काटे जाते, कैंची से काटे जाते हैं। झगड़ा भयंकर हो गया कि फीता चाकू से कटे कि कैंची से कटे। दोनों की इज्जत का सवाल था। बात इतनी बढ़ गई कि डब्बा उस रात तो काटा ही न जा सका, सुहागरात भी नष्ट हो गई उसी झगड़े में। और विवाद, क्योंकि प्रतिष्ठा का सवाल था, दोनों के परिवार दाव पर लगे थे कि कौन सुसंस्कृत है! वह बात इतनी बढ़ गई कि वर्षों तक झगड़ा चलता रहा। फिर तो बात ऐसी सुनिश्चित हो गई कि जब भी झगडे की हालत आए, तो पति को इतना ही कह देना काफी था, चाकू! और पत्नी उसी वक्त चिल्लाकर कहती, कैंची! वे प्रतीक हो गए। वर्षों खराब हो गए। आखिर पति के बरदाश्त के बाहर हो गया। और डब्बा अनखुला रखा है। क्योंकि जब तक यही तय न हो कि कैंची या चाकु तब तक वह खोला कैसे जाए। कौन खोलने की हिम्मत करे?
एक दिन बात बहुत बढ़ गई, तो पति समझा बुझाकर झील के किनारे ले गया पत्नी को। नाव में बैठा, दूर जहां गहरा पानी था, वहा ले गया, और वहा जाकर बोला कि अब तय हो जाए। यह पतवार देखती है, इसको तेरी खोपड़ी में मारकर पानी में गिरा दूंगा। तैरना तू जानती नहीं है, मरेगी। अब क्या बोलती है?
चाकू या कैंची?
पत्नी ने कहा, कैंची। जान चली जाए, लेकिन आन थोड़े ही छोड़ी जा सकती है! रघुकुल रीत सदा चली आई, जान जाय पर वचन न जाई। पति भी उस दिन तय ही कर लिया था कि कुछ निपटारा कर ही लेना है। यह तो जिंदगी बरबाद हो गई। और चाकू कैंची पर बरबाद हो गई! लेकिन वह यही देखता है कि पत्नी बरबाद करवा रही है। यह नहीं देखता कि मैं भी चाकू पर ही अटका हुआ हूं अगर वह कैंची पर अटकी है। तो दोनों कुछ बहुत भिन्न नहीं हैं। पर खुद का दोष तो युद्ध के क्षण में, विरोध के क्षण में, क्रोध के क्षण में दिखाई नहीं पड़ता। उसने पतवार जोर से मारी, पत्नी नीचे गिर गई। उसने कहा, अभी भी बोल दे! तो भी उसने डूबते हुए आवाज दी, कैंची। एक डुबकी खाई, मुंह नाक में पानी चला गया। फिर ऊपर आई। फिर भी पति ने कहा, अभी भी जिंदा है। अभी भी मैं तुझे बचा सकता हूं?
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बोल! उसने कहा, कैंची। अब पूरी आवाज भी नहीं निकली, क्योंकि मुंह में पानी भर गया। तीसरी डुबकी खाई, ऊपर आई। पति ने कहा, अभी भी कह दे, क्योंकि यह आखिरी मौका है! अब वह बोल भी नहीं सकती थी। डूब गई। लेकिन उसका एक हाथ उठा रहा और दोनों अंगुलियों से कैंची चलती रही। दोनों अंगुलियों से वह कैंची बताती रही डूबते डूबते, आखिरी क्षण में। हजार रूपों में युद्ध चल रहा है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। युद्ध के लिए कोई आकाश से बम—वर्षा होनी आवश्यक नहीं है। वह तो आखिरी परिणति है। वह तो युद्ध का आखिरी रूप है। लेकिन तैयारी तो घर घर में चलती है; तैयारी तो हृदय हृदय में चलती है। युद्ध युद्ध के मैदानों पर नहीं लडे जाते, मनुष्य के अंधकार में लड़े जाते हैं। तुम चौबीस घंटे बंटे हुए हो, लड़ रहे हो। किसी दूसरे से तो बाद में लड़ोगे, पहले तुम अपने से लड़ रहे हो। एक भी ऐसी तुम्हारे जीवन की पल—दशा नहीं है, जब तुम्हारा किसी न किसी अर्थों में संघर्ष न चल रहा हो। और जहां संघर्ष है, वहां कैसे शांति होगी?
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और जहां संघर्ष है, वहा कैसे समाधि फलित होगी?
फिर तुम्हारा संघर्ष, तुम जिनसे जुड़े हो, उनमें फैल जाता है क्षुद्र बातों पर! तुमने कभी ध्यान दिया, कितनी छोटी बातों पर तुम लड़ते हो। जैसे बातें तो बहाना हैं; लड़ना तुम चाहते हो, इसलिए कोई भी बहाना काम दे देता है। महाभारत के लिए कोई कुरुक्षेत्र नहीं चाहिए; महाभारत तुम्हारे मन में है। क्षुद्र पर तुम लड़ रहे हो। तुम्हें लड़ने के क्षण में दिखाई भी नहीं पड़ता कि किस क्षुद्रता के लिए तुमने आग्रह खड़ा कर लिया है। और जब तक तुम्हारा अज्ञान गहन है, अंधकार गहन है, अहंकार सघन है, तब तक तुम देख भी न पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन एक कलह है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, तुम जीते नहीं, सिर्फ लड़ते हो। कभी कभी तुम दिखलाई पड़ते हो कि लड़ नहीं रहे हो, वे लड़ने की तैयारी के क्षण होते हैं; जब तुम तैयारी करते हो। महायज्ञ की जरूरत तुम्हारे भीतर है। और वहां किसी अग्नि में घी डालने से काम न चलेगा, वहां तो परमात्मा की अग्नि में तुम्हें स्वयं को ही डालना पड़ेगा। वही एक मात्र यश है, जीवन यज्ञ, जहां तुम अपनी आहुति दे देते हो और अपने अहंकार को जल जाने देते हो। फिर कोई युद्ध नहीं है, फिर कोई उपाय ही नहीं है युद्ध का। -ओशो.”
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