Kabir ke Dohe
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मन – कबीर – दोहा

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दोहा – 1

कबहुुक मन गगनहि चढ़ै, कबहु गिरै पाताल
कबहु मन अनमुनै लगै, कबहु जाबै चाल।

अर्थ : कभी तो मन मगन में बिहार करता है। और कभी पाताल लोक में गिर जाता है।
कभी मन ईश्वर के गहन चिंतन में रहता है और कभी संासारिक बिषयों में भटकता रहता है।यह मन अत्यंत चंचल है।

दोहा – 2

कबीर बैरी सबल है, एक जीव रिपु पांच
अपने अपने स्वाद को, बहुत नचाबै नाच।

अर्थ : कबीर कहते हैं कि शत्रु बहुत प्रवल है। जीव एक है पर उसके दुश्मन पाॅंच हंै।
वे अपने स्वाद पसंद के मुताविक हमें बहुत नाच नचाते हैं।

दोहा – 3

कबीर मन गाफिल भया, सुमिरन लागे नाहि
घानि सहेगा सासना, जम की दरगाह माहि।

अर्थ : कबीर के अनुसार यह मन अत्यंत मूर्ख है और इसे प्रभु के स्मरण में ध्यान नहीं लगता है।
इसे अंत में यमराज के दरवार में बहुत दंड भोगना पड़ेगा।

दोहा – 4

कबीर मन परबत भया, अब मैं पाया जान
तन की लागी प्रेम की, निकसी कंचन खान।

अर्थ : कबीर के अनुसार मन पहाड़ की भाॅंती हो गया है-यह मैं अब जान पाया हूॅं। जब से इसमे प्रेम का बंधन लगा है
तो सोने की खान निकल गया है। प्रभु से प्रेम का बंधन बहुत कीमती है।

दोहा – 5

कबीर यह मन लालची, समझै नाहि गवार
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।

अर्थ : कबीर के अनुसार यह मन बहुत लालची है। यह गॅवार की तरह नहीं समझता है।
प्रभु की भक्ति के लिये आलसी बना रहता है परंतु खाने भोजन के लिये हमेशा तैयार रहता है।

दोहा – 6

चंचल मन निशचल करै, फिर फिर नाम लगाय
तन मन दोउ बसि करै, ताको कछु नहि जाय।

अर्थ : इस चंचल मन को स्थिर करें। इसे निरंतर प्रभु के नाम में लगावें।
अपने शरीर और मन को वश में करें आप का कुछ भी नाश नहीं होगा।

दोहा – 7

चिन्ता चित्त विशारिये फिरि बुझिये नहीं आन
इंद्री पसारा मेटिये,सहज मिलिये भगवान।

अर्थ : मन में चिंताओं को भूल जाईये और दूसरों से भी उनकी चिंताओं को मत पूछिये।
अपने बिषय इन्द्रियों को फैलने से नियंत्रन करें। आप सहज हीं प्रभु को पा लेगें।

दोहा – 8

जहां बाज बासा करै, पंछी रहै ना और
जा घट प्रेम परगट भया, नाहि करम को थौर।

अर्थ : जहाॅं बाज पक्षी रहते है वहाॅं कोई अन्य पक्षी नहीं रह पाता है।
जिस शरीर में परमात्मा का प्रेम प्रगट हो जाये वहाॅं पाप एंव दुष्कर्म के लिये कोई जगह नहीं है।

दोहा – 9

तेरा बैरी कोइ नहीं, जो मन शीतल होय
तु आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।

अर्थ : यदि आप अपने मन को शीतल शांत पवित्र कर लें तो आपका कोई शत्रु नहीं हो सकता।
यदि आप अपने घमंड और अहंकार को त्याग दे तो सभी लोग आपको प्रेम करेंगे।

दोहा – 10

तन की भूख सहज अहै तीन पाव की सेर
मन की भूख अनन्त है, निगलै मेरु सुमेरु।

अर्थ : शरीर का भूख अत्यंत साधारण है-यह तीन पाव या एक किलो से मिट सकता हैं।
पर मन का भूख अनन्त होता है जो सुमेरु पर्वत को भी निगल सकता है।

दोहा – 11

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कहे कबीर हरि पाइये, मन ही के परतीत

अर्थ : मन के हारने पर आप हारते है और मन के विजय होने पर आप जीत जाते हैं।
कबीर के अनुसार यदि मन में पूर्णविश्वास हो तो आप प्रभु को सुगमता से पा सकते है।

दोहा – 12

मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहि
कहं कबीर क्या किजीये, येह मन ठहरै नाहि।

अर्थ : मन को नियंत्रित करके वन में गये और पुनः वन छोड़कर बस्ती में लौट गये।
कबीर कहते हैं कि क्या करुॅं यह मन कहीं स्थिर नहीं होता है।

दोहा – 13

मन के मते ना चलिये, मन के मते अनेक
जो मन पर अस्वार है, सो साधू कोइ एक।

अर्थ : मन के कहने पर मत चलें। मन के अनेक विचार रहते है।
जो मन सर्वदा एक स्थिर रहता है-वह दुर्लभ मन कोई एक होता है।

दोहा – 14

मन के बहुतक रंग है, छिन छिन बदले सोय
एक रंग मे जो रहे, एैसा बिरला कोय।

अर्थ : मन के अनेको रंग-विचार है और यह क्षण-क्षण बदलता रहता है।
जो मत सर्वदा एक मन में स्थिर रहता है-वह दुर्लभ कोई एक संत होता है।

दोहा – 15

मन के मिरतक देखि के, मति माने बिसवास
साधु तहां लगि भय करै, जब लगि पिंजर स्वास।

अर्थ : मन को मरा देख कर भरोसा मत करो। एक साधु मन से तब तक भयभीत रहता है जब
तक उसका साॅंस चलता रहता है। मन बहुत चंचल है अतः सावधान रहना पड़ता है।

दोहा – 16

मन कुंजर महमंत था, फिरत गहिर गंभीर
दुहरि,तिहरि,चैहरि,परि गयी प्रेम जंजीर।

अर्थ : यह मन नशेमें झूमता मस्त हाथी की तरह इधर-उधर भागता फिरता है।
परंतु जब उसे दो तीन चार फेरे वाली चेन से जकड़ दिया गया तो वह शांत हो गया।
यह चेन जंजीर प्रेम का हीं था। प्रेम चित्त को शांत करने का प्रवल उपाय है।

दोहा – 17

मन अपना समुझाय ले, आया गफिल होय
बिन समुझै उठि जायेगा, फोगट फेरा तोय।

अर्थ : अपने मन को समझा लो। तुम अनावश्यक भ्रम में पड़े हो। अगर समझ रहते नहीं समझाओगे
तो यह शरीर उठ जायेगा और अनावश्यक पुनर्जन्म के चक्कर में भटकता रहेगा।

दोहा – 18

मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक
जो येह मन हरि सो मिलय,तो हरि मिलय निशंक।

अर्थ : यह मन ही सभी सुखो का दाता है। पर मन बहुत लालची है। मन ही राजा और मन ही भिखारी है।
यदि यह मन ईश्वर से जुट जाये तो परमात्मा निश्चय हीं मिल जायेंगे।

दोहा – 19

मन चलती तन भी चलै, ताता मन को घेर
तन मन दौउ बसि करै, होय राई सुमेर।

अर्थ : मन के मुताविक ही शरीर भी चलता है। अतः मन का नियंत्रन करो।
अदि तुम अपने मन और शरीर दोनों को अपने वश में कर लो तो राई को भी पर्वत कर सकते हो।
मन और शरीर के नियंत्रण से तुच्छ व्यक्ति भी महान बन सकता है।

दोहा – 20

मन निर्मल हरि नाम सौं, कई साधन कई भाय
कोइला दुनो कालिमा, सौ मन साबुन लाय।

अर्थ : यह मन प्रभु के नाम या ध्यान और अन्य साधनों के उपयोग से पवित्र होता है। ़़़़
यह कोयला से भी दूगूना काला है। और यह सौ मन साबुन से भी साफ नहीं हो सकता है।

दोहा – 21

मन नहि छारै विषय रस, विषय ना मन को छारि
इनका येहि सुभाव है, पुरि लागि आरि।

अर्थ : मन बिषयों से आशक्ति नहीं छोड़ता है। विषया शक्ति मन को बाॅंधें रखता है।
यह इन दोनों का सहज स्वभाव है कारण उनके उपर अज्ञान का परदा पड़ा हुआ है।

दोहा – 22

मन ही को परमोधिये, मन ही को उपदेश
जो येह मन को बसि करै, शीश होय सब देश।

अर्थ : मन को ज्ञानी बनावें और मन को हीं उपदेश शिक्षा दें। यदि कोई अपने मन को
नियंत्रित कर ले तो वह संपूर्ण विश्व को वश में कर सकता है।

दोहा – 23

मनहि मनोरथ छाारि दे तेरा किया ना होय
पानी मे घी निकसै रुखा खाये ना कोय।

अर्थ : अपने मन से इच्छाओं का परित्याग करो। तुम्हारे करने से कुछ भी नहीं हो सकता है।
पानी से कभी घी नहीं निकल सकता है अन्यथा कोई भी आदमी रोटी बिना घी के नहीं खाता।

दोहा – 24

कबीर मन कु मारि ले, सब आपा मिट जाय
पगला है पियु पियु करै, पिछै काल ना खाय।

अर्थ : कबीर कहते है कि यदि कोई ध्यान साधना के द्वारा मन को मार ले तो उस का अंहकार
समाप्त हो जायेगा और वह प्रभु का दीवाना होकर उसे पुकारता रहेगा। तब मृत्यु भी उसे नहीं खा सकता है।

दोहा – 25

कबीर मन तो एक है, भाबै तहां लगाय
भाबै गुरु की भक्ति कर, भाबै विषय समाय।

अर्थ : कबीर कहते है यह मन तो एक ही है। तुम्हारी जहाॅं इच्छा हो इसे वहाॅं लगाओ
मन हो तो इसे प्रभु भक्ति में समर्पित करो या विषय भोगों में लगाओ।

दोहा – 26

कबीर मन मरकत भया, नेक ना कहु ठहराय
राम नाम बांधै बिना, जित भाबै तित जाये।

अर्थ : कबीर के अनुसार यह मन बंदर की भाॅंति है। जो क्षण भर के लिये भी कहीं नहीं ठहरता है।
इसकी जहाॅं इच्छा होती है-यह चला जाता है। यदि इसे राम नाम के साथ नहीं बाॅंधा जाये।

दोहा – 27

कबीर मन मिरतक भया, दुरबल भया शरीर
पाछै लागा हरि फिरय, कहै कबीर कबीर।

अर्थ : कबीर कहते है की उनका मन-मिजाज मर गया है और शरीर भी अत्यधिक क्षीण हो गया है।
तब प्रभु सर्वदा उनके पीछे लगे रहते है और कबीर-कबीर पुकारते रहते हैं।

दोहा – 28

मन मुरीद संसार है, गुरु मुरीद कोय साध
जो माने गुरु बचन को , ताका मता अगाध

अर्थ : यह तन संपुर्ण संसार का प्रेमी है लेकिन गुरु का प्रेमी कोई साधु ही होता है।
जो अपने गुरु के वचन को स्वीकार करता है उसका बिचार अगम अगाध होता है।

दोहा – 29

येह मन मैला नीच है, नीच करम सुहाय
अमृत छारै मन करै, विषय प्रीति सो खाये।

अर्थ : यह मन गंदा और नीच प्रकृति का है। इसे केवल नीच कर्म हीं अच्छा लगता है।
यह जानबूझ कर भी अमृत को छोड़ देता है और केवल बिषय-वासना में लिप्त रहता है।

दोहा – 30

अकथ कथा या मन की, कहै कबीर समुझाय
जो याको समझा परै, ताको काल ना खाय।

अर्थ : इस मन की कथा अनन्त है। कबीर इसे समझा कर कहते हैं।
जिसने इसबात को समझ लिया है उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।

दोहा – 31

इन पांचो से बांधीया, फिर फिर धरै सरीर
जो येह पांचो बसि करै, सोई लागे तीर।

अर्थ : पाॅंच बिषय-वासनाओं में बंध कर मनुष्य अनेक वार जन्म लेकर शरीर धारण करता है।
जो इन पाॅंचो को अपने वश में कर लेता है वह इस भवसागर के पार लगजाता है।

दोहा – 32

सात समुद्र की ऐक लहर, मन की लहर अनेक
कोइ ऐक हरिजन उबरा, डुबि नाव अनेक।

अर्थ : साॅंतो समुद्र की लहरें एक ही है पर मन में अनेक प्रकार की लहरें हैं।
शायद कोई एक प्रभु भक्त इससे मुक्ति पाता हे। किंतु अनेकों नाव इसमें डूब चुके हैं।

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