Folk tale stories for Childrens
~Advertisement ~

जटा हलकारा – Matted Hair

नपुंसक पति की घरवाली-सी वह शोकभरी शाम थी। अगले जन्म की आशा के समान कोई तारा चमक रहा था। अंधेरे पखवाड़े के दिन थे। ऐसी नीरस शाम को आंबला गांव के चबूतरे पर ठाकुरजी की आरती की सब बाट देख रहे थे। छोटे-छोटे अधनंगे बच्चों की भीड़ लगी थी। किसी के हाथ में चांद-सी चमकती कांसे की झालर झूल रही थी तो कोई बड़े नगाड़े पर चोट लगाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छोटे-छोटे बच्चे इस आशा से नाच रहे थे कि प्रसाद में उन्हें मिस्री का एकाध टुकड़ा, नाररियल की एक-दो फांकें तथा तुलसी दल से सुगंधित मीठा चरणमृत मिलेगा। बाबाजी ने अभी तक मंदिर को खोला नहीं था। कुंए के किनारे पर बैठे बाबाजी स्नान कर रहे थे।

बड़ी उम्र के लोग नन्हें बच्चों को उठाये आरती की प्रतीक्षा में चबूतरे पर बैठे थे। सब चुप्पी साधे थे। उनके अंतर अपने आप गहराई में बैठते जा रहे थे। यह ऐसी शाम थी।

बड़ी उदास थी आज की शाम। अत्यंत धीमी आवाज में किसी ने बड़े दु:ख से कहा, “ऋतुएं मंद पड़ती जा रही है।’

दूसरा इस दु:ख में वृद्धि करते हुए बोला, “यह कलियुग है। अब कलियुग में ऋतुएं खिलती नहीं हैं। खिलें तो कैसे खिलें!”

तीसरे ने कहा, “ठाकुर जी का मुखारबिन्दु कितना म्लान पड़ गया है।”

चौथा बोला, “दस वर्ष पहले उनके मुख पर कितना तेज था।”

बड़े-बूढ़े लोग धीमी आवाज में तथा अधमुंदी आंखों से बातों में तल्लीन थे। उसी समय आंबला गांव के बाजार में दो व्यक्ति सीधे चले आ रहे थे। आगे पुरुष और पीछे स्त्री। पुरुष की कमर में तलवार और हाथ में लकड़ी थी। स्त्री के सिर पर बड़ी गठरी थी। पुरुष को एकदम पहचाना नहीं जा सकता था, परंतु राजपूतनी अपने पैरों की चाल से ओर घेरदार लहंगे तथा ओढ़नी से पहचानी जाती थी।

राजपूत ने लोगों को “राम-राम” नहीं किया, इससे गांव के लोग समझ गये किये अजनबी हैं। अपनी ओर से ही लोगों ने कहा, “राम-राम”।

उत्तर में “राम-राम” कहकर यात्री जल्दी-जल्दी आगे चल पड़ा। उसके पीछे राजपूतनी अपने पैरों की एड़ियों को ढकती हुई बढ़ चली। एक-दूसरे के मुंह की ओर देखकर लोगों ने कहा, “ठाकुर, कितनी दूर जाना है?

यह भी पढे – खाने के बाद लेटना – Lying Down After Eating

यह भी पढे – थोडा मुस्कुरा लीजिये – Smile A Little

‘यही कोई आधा मील।” जवाब मिला।

“तब तो आप लोग यहां रुक जाइये?

“क्यों?

इतना जोर क्यों दे रहे हैं?

” यात्री ने कुछ तेजी से कहा।

“इसका कोई खास कारण तो नहीं है, परंतु समय अधिक हो गया और साथ में महिला है। इसी से हम कह रहे हैं। अंधेरे में अकारण जोखिम क्यों लेते हैं?

फिर यहां हम सब आपके ही भाई-बंद तो हैं। इसलिए आप रुक जाइये।”

मुसाफिर ने जवाब दिया, “अपनी ताकत का अंदाजा लगा करके ही मैं सफर करता हूं। मर्दों के लिए समय-असमय क्या होता है! अब तक तो अपने से बढ़कर कोई बहादुर देखा नहीं है।”

आग्रह करने वाले लोगों को बड़ा बुरा लगा। किसी ने कहा, “ठीक है, वरना चाहते हैं तो इन्हें मरने दो।”

राजपूत और राजपूतानी आगे बढ़ गये।

दोनों जंगल में चले जा रहे थे। सूर्य अस्त हो गया था। दूर से मंदिर में आरती के घंटे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। दूर के गांवों के दीपक टिमटिमा रहे थे और कुत्ते भौंक रहे थे।

मुसाफिर ने अचानक पीछे घुंघरू की आवाज सुी। राजपूतनी ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे सणोसरा का जटा हलकारा कंधे पर डाक की थैली लटकाये, हाथ में घुंघरू वाला भाला लिये, जाते हुए दिखाई दिया। उसकी कमर में फटे मयान वाली तलवार लटकी हुई थी। जटा हलकारा दुनिया की आशा-निराशा और शुभ-अशुभ की थैली कंधे पर लेकर जा रहा था। कुछ परदेश गये पुत्रों की वृद्ध माताएं ओर प्रवासियों की स्त्रियां साल-छ: महीने में चिटठी मिलने की आस लगाये बैठी राह देखती होगी, यह सोचकर नहीं,बल्कि देरी हो जायेगी तो वेतन कट जरयगा, इस डर से जटा हलकारा दौड़ा जा रहा था। भाले के घुंघरू इस अंधेरे एकांत रात में उसके साथी बने हुए थे।

देखते-ही-देखते हलकारा पीछे चलती राजपूतनी के पास पहुंच गया। दोनों ने एक-दूसरे की कुशल पूछी। राजपूतनी का मायका सणोसरा में था। हलकारा सणोसरा से ही आ रहा था। इसलिए राजपूतनी अपने मां-बाप के समाचार पूछने लगी। पीहर के गांव से आनेवाले अपरिचित पुरुष को भी स्त्री अपने सगे भाई-सा समझती है। दोनों बातें करते हुए साथ चलने लगे।

राजपूत कुछ कदम आगे था। राजपूतनी को पीछे रह जाते देखकर उसने मुड़कर देखा। दूसरे आदमी के साथ बातें करते देखकर उसने उसको भला-बुरा कहा और धमकाया।

राजपूतनी ने कहा, “मेरे पीहर का हलकारा है। मेरा भाई है।”

“देख लिया तेरा भाई ! चुपचाप चली आ।” राजपूत ने भौंहें चढ़ाकर कहा, फिर हलकारे से बोला, ““तुम भी तो आदमी-आदमी को पहचानो।”

ठीक है, बापू!” यों कहकर हलकारे ने अपननी चाल धीमी कर दी। एक खेत जितनी दूरी रख कर वह चलने लगा।

जब यह राजपूत जोड़ी नदी पर पहुंची तो एक साथ बारह आदमियों ने ललकारा, “खबरदार, जो आगे बढ़े! तलवार नीचे डाल दो।”

राजपूत के मुंह से दो-चार गालियां निकलीं, परंतु म्यान से तलवार नहीं निकल पायी। आंबला गांव के बाहर कोलियों ने आकर उस राजपूत को रस्सी से बांध दिया और दूर पटक दिया।

“बाई, गीहने उतार दो।” एक लुटेरे ने राजपूतनी से कहा।

बेचारी राजपूतनी अपने शरीर पर से एक-एक गहना उतारने लगी। हाथ, पैर, सीना आदि अंग लुटेरों की आंखों के आगे आये। उसकी भरी हुई देह ने लुटेरों की आंखों में काम-वासना उभार दी। जवान कोलियों ने पहले तो उसका मजाक उड़ाना शुरू किया। राजपूतनी शांत रही, लेकिन जब लुटेरे बढ़कर उसके निकट आने लगे तो जहरीली नागिन की तरह फुफकारती हुई राजपूतनी खड़ी हो गई।

कोलियों ने यह देखकर अटटहास करते हुए कहा, “अरे ! उस समी की पूंछ को धरती पर पटक दो!”

अंधेरे में राजपूतनी ने आकश की ओर देखा। जटा हलकारा के घुंघरू की आवाज उसके कानों में पड़ी।

राजपूतनी चीख उठी, “भाई, दौड़ो ! बचाओ!”

हलकारे ने तलवार खींच ली और पलक मारते वहां जा पहुंचा। बोला, “खबरदार, जो उस पर हाथ उठाया!”

बारह कोली लाठियां लेकर उस पर टूट पड़े। हलकारे ने तलवार चलायी और सात कोलियों को मौत के घाट उतार दिया। उसके सिर पर लाठियों की वर्षा हो रही थी, परंतु हलकारे को लाठियों की चोट का पता ही नहीं था। राजपूतनी ने शोर मचा दिया। मारे डर के बचे हुए लुटेरे भाग गये। उनके जाते ही हलकारा चक्कर खाकर गिर पड़ा ओर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

राजपूतनी ने अपने पति की रस्सियां खोल दीं। उठते ही राजपूत बोला, “अब हम चलें।”

“कहां चलें?

” स्त्री ने दु:खी होकर कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती ! दो कदम साथ चलने वाला वह ब्राह्राण, घड़ी भर की पहचान के कारण, मेरे शील की रक्षा करते मरा पड़ा है। और मेरे जन्म भर के साथी, तुम्हें अपना जीवन प्यारा लगता है ! ठाकुर, चले जाओ अपने रास्ते। अब हमारा काग और हंस का साथ नहीं हो सकता। मैं तो अब अपने बचाने वाले ब्राह्राण की चिता में ही भस्म हो जाऊंगी!”

“ठीक है, तेरी जैसी मुझे और मिल जायगी।” कहता हुआ राजपूत वहां से चला गया।

हलकारे के शव को गोद में लेकर राजपूतनी सवेरे तक उस भयंकर जंगल में बैठी रही। उजाला होने पर उसने इर्द-गिर्द से लकड़ियां इकटठी करके चिता रची। शव को गोद में लेकर स्वयं चिता पर चढ़ गई। अग्नि सुलग उठी। दोनों जलकर खाक हो गये। कायर पति की सती स्त्री जैसी शोकातुर संध्या की उस घड़ी में चिता की क्षीण ज्योति देर तक चमकती रही।

आंबला और रामधारी के बीच के एक नाले में आज भी जटा और सती की स्मृति सुरक्षित है।

Note:- इन कहानियों मे प्रयोग की गई सभी तस्वीरों को इंटरनेट से गूगल सर्च और बिंग सर्च से डाउनलोड किया गया है।

Note:-These images are the property of the respective owner. Hindi Nagri doesn’t claim the images.

यह भी पढे –

सभी कहानियों को पढ़ने के लिए एप डाउनलोड करे/ Download the App for more stories:

Get it on Google Play