बाहर की दुनिया – Outside World
कवि गालिब को एक दफा बहादुरशाह ने भोजन का निमंत्रण दिया था। गालिब था गरीब आदमी। और अब तक ऐसी दुनिया नहीं बन सकी कि कवि के पास भी खाने-पीने को पैसा हो सके। अच्छे आदमी को रोजी जुटानी अभी भी बहुत मुश्किल है। गालिब तो गरीब आदमी थे। कविताएं लिखी थीं, ऊँची कविताएं लिखने से क्या होता है?
यह भी पढे – मदर टेरेसा – Mother Teresa
कपड़े उसके फटे-पुराने थे। मित्रों ने कहा, बादशाह के यहां इन कपड़ों से नहीं चलेगा। क्योंकि बादशाहों के महल में तो कपड़े पहचाने जाते हैं। हम उधार कपड़े ला देते हैं, तुम उन्हें पहनकर चले जाओ। जरा आदमी तो मालूम पड़ोगे। गालिब ने कहा, ‘उधार कपड़े! यह तो बडी बुरी बात होगी कि मैं किसी और के कपड़े पहनकर जाऊं। मैं जैसा हूं, ठीक हूं। किसी और के कपड़े पहनने से क्या फर्क पड़ जायेगा?
मैं तो वही रहूंगा।’ मित्रों ने कहा, ‘छोड़ो भी यह फिलासफी की बातें। इन सब बातों से वहां नहीं चलेगा। हो सकता है, पहरेदार वापस लौटा दें! इन कपड़ो में तो भिखमंगों जैसा मालूम पड़ते हो। ‘ ?
‘ गालिब ने कहा, मैं तो जैसा हूं हूं। गालिब को बुलाया है कपड़ों को तो नहीं बुलाया?
तो गालिब जायेगा। ……नासमझ था-कहना चाहिए, नादान, नहीं माना गालिब, और चला गया। दरवाजे पर द्वारपाल ने बंदूक आड़ी कर दी। पूछा कि, कहां भीतर जा रहे हो?
‘गालिब ने कहा, ‘मैं महाकवि गालिब हूं। सुना है नाम कभी?
सम्राट ने बुलाया है-सम्राट का मित्र हूं, भोजन पर बुलाया है। द्वारपाल ने कहा- ‘हटो रास्ते से। दिन भर में जो भी आता है, अपने को सम्राट का मित्र बताता है! हटो।। नहीं तो उठाकर बंद करवा दूंगा।’ गालिब ने कहा, ‘क्या कहते हो, मुझे पहचानते नहीं?
यह भी पढे – भगवान बचाएगा ! – God Will Save!
”द्वारपाल ने कहा, ‘तुम्हारे कपड़े बता रहे है तुम कौन हो! फटे जूते बता रहे हैं कि तुम कौन हो! शक्ल देखी है कभी आइने में कि तुम कौन है?
‘ गालिब दुखी होकर वापस लौट आया। मित्रों से उसने कहा, ‘तुम ठीक ही कहते थे, वहां कपड़े पहचान जाते हैं। ले आओ उधार कपड़े। ‘ मित्रों ने कपड़े लाकर दिये। उधार कपड़े पहनकर गालिब फिर पहुंच गया। वहीं द्वारपाल झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा। गालिब बहुत हैरान हुआ कि ‘कैसी दुनिया है?
‘भीतर गया तो बादशाह ने कहा, बडी देर से प्रतीक्षा कर रहा हूं। गालिब हंसने लगा, कुछ बोला नहीं। जब भोजन लगा दिया गया तो सम्राट खुद भोजन के लिए सामने बैठा- भोजन कराने के लिए। गालिब ने भोजन का कौर बनाया और अपने कोट को खिलाने लगा कि, ‘ए कोट खा ! ‘पगड़ी को खिलाने लगा कि ‘ले पगड़ी खा! ‘सम्राट ने कहा, ‘आपके भोजन करने की बड़ी अजीब तरकीबें मालूम पड़ती हैं। यह कौन-सी आदत है ‘यह आप क्या कर रहे हैं?
‘ गालिब ने कहा, ‘जब मैं आया था तो द्वार से ही लौटा दिया गया था। अब कपड़े आये हैं उधार। तो जो आए हैं, उन्हीं को भोजन भी करना चाहिए! ‘ बाहर की दुनिया में कपड़े चलते हैं।…. बाहर की दुनिया में कपड़े ही चलते हैं। वहां आत्माओं का चलना बहुत मुश्किल है; क्योंकि बाहर जो भीड़ इकट्ठी है, वह कपड़े वालों की भीड़ है। वहां आत्मा को चलाने की तपश्चर्या हो जाती है। लेकिन बाहर की दुनिया में जीवन नहीं मिलता। वहां हाथ में कपड़ों की लाश रह जाती है, अकेली। -ओशो”
Note:- इन कहानियों मे प्रयोग की गई सभी तस्वीरों को इंटरनेट से गूगल सर्च और बिंग सर्च से डाउनलोड किया गया है।
Note:-These images are the property of the respective owner. Hindi Nagri doesn’t claim the images.
यह भी पढे –
- शांति दूत श्रीकृष्ण – peace messenger shri krishna
- जीवन में मेरा उद्देश्य – My Purpose In Life
- महाकपि – Great Ape
- राम-भरत मिलाप – Ram – Bharat Milaap
- गांवों में शिक्षा – Education In Villages
सभी कहानियों को पढ़ने के लिए एप डाउनलोड करे/ Download the App for more stories: