जो कोई करै सो स्वार्थी, अरस परस गुन देत बिन किये करै सो सूरमा, परमारथ के हेत।
अर्थ : जो अपने हेतु किये गये के बदले में कुछ करता है वह स्वार्थी है। जो किसी के किये गये उपकार के बिना किसी का उपकार करता है। वह व्स्तुतः परमार्थ के लिये करता है।
दोहा – 2
सुख के संगी स्वार्थी, दुख मे रहते दूर कहे कबीर परमारथी, दुख सुख सदा हजूर।
अर्थ : स्वार्थी व्यक्ति सुख का साथी होता है। वह दुख के समय दूर ही रहते है। कबीर कहते हैं कि एक परमार्थी सर्वदा सुख-दुख में साथ निभाते है।
दोहा – 3
प्रीत रीत सब अर्थ की, परमारथ की नाहि कहे कबीर परमारथी, बिरला कोई कलि माहि।
अर्थ : प्रेम के समस्त व्यवहार आज के युग में धन के लिये है। परमार्थ के लिये प्रेम का व्यहार नहीं हैं। कबीर कहते हैं कि कलयुग में परोपकार के लिये परमार्थी शायद ही मिलते हंै।
दोहा – 4
तिन समान कोई और नहि, जो देते सुख दान सबसे करते प्रेम सदा, औरन देते मान।
अर्थ : उस मनुष्य के समान कोई नहीं है जो दूसरों को सुख का दान करते हैं। जो सबसे सर्वदा प्रेम करते हैं और दूसरों को सम्मान देते हैं-वे वस्तुतः महान हैं।
दोहा – 5
परमारथ हरि रुप है, करो सदा मन लाये पर उपकारी जीव जो, सबसे मिलते धाये।
अर्थ : परमार्थ दूसरों की सहायता करना ईश्वर का हीं स्वरुप है।इसे सदा मनोयोग पूर्वक करना चाहिये। जो दूसरों का उपकार मदद करता है-प्रभु उससे दौड़कर गले मिलते है।
दोहा – 6
धन रहै ना जोबन रहै, रहै ना गाम ना धाम कबीर जग मे जश रहै, कर दे किसी का काम।
अर्थ : धन, यौवन, संपत्ति, जमीन कुछ भी नहीं रहता। सभी क्षणिक एंव नाशवान हैं। केवल यश रह जाता है यदि आपने किसी की भलाई की हो।
दोहा – 7
मरु पर मांगू नहि, अपने तन के काज परमारथ के कारने, मोहि ना आबे लाज।
अर्थ : स्वयं के लिये कुछ भी मांगना मृत्यु स्वरुप है पर दूसरों की मदद के लिये याचना करने में मुझे कुछ भी लज्जा नहीं होगी।
अर्थ : स्वार्थ सूखी लकड़ी की तरह छाॅंह नहीं देती और राहगीर के कष्ट का कारण है। परमार्थी पीपल वृक्ष की भाॅंति अपने छाया से राहगीरों को सुख पहुॅंचाता है।
दोहा – 9
सूरा को तो सिर नहीं, दाता को धन नाहि पतिव्रता को तन नहीं, जीव बसै पिव माहि।
अर्थ : वीर पुरुष अपने सिर का मोह नहीं करता है। दानवीर उदारता के कारण धन का मोह नहीं करता पतिव्रता स्त्री अपने शरीर का ध्यान नहीं रखती है। इन सभी का मन सर्वदा प्रभु में बसता है।
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