अंतर यही बिचारिया, साखी कहो कबीर भौ सागर में जीव है, सुनि कै लागे तीर।
अर्थ : प्रभु ने कबीर को प्रेरणा दी कि स्वरुप बखान करें। हम सभी जीव जगत इस सागर में डूब रहें है और इसे सुनकर हम इसेे पार कर सकते है।
दोहा – 2
आतम पूजा जीव दया पर आतम की सेवा कहे कबीर हरि नाम भज सहज परम पद लेवा।
अर्थ : अंतरात्मा से प्रभु की पूजा, सभी जीवो पर दया और परमात्मा की सेवा करो। कबीर कहते हं कि प्रभु के नाम का भजन करो इससे आसानी से उच्चतम स्थान प्राप्त होगा।
दोहा – 3
आन कथा अंतर परै, ब्रहम् जीव मे सोये कहै कबीर येह दोश बर सुनि लिजेय सब कोय।
अर्थ : सांसारिक कथाओं के सुनने से ईश्वर एंव जीवों में दूरी बढ़ती है। यह एक बड़ा दोष है इसे सब लोगों को सुनना एंव जानना चाहिये।
दोहा – 4
कथा किरतन करन की, जाके निस दिन रीत कहे कबीर वा दास को निश्चय कीजय प्रीत।
अर्थ : जो व्यक्ति नित्य रुप से प्रभु का कथा कीत्र्तन करता है-कबीर कहते हैं कि प्रभु के उस दास से निश्चय ही प्रेम करना चाहिये।
दोहा – 5
कथा करो करतार की सुनो कथा करतार आन कथा सुनिये नहीं कहै कबीर बिचार।
अर्थ : केवल परमात्त्मा की बात करो। एक मात्र परमात्मा की कथा सुनो। किसी अन्य बात या कथा को मत सुनो। कबीर का यह सुविचार मत है।
दोहा – 6
कथा करो करतार की निशदिन संाझ सकार काम कथा को परि हरो, कहै कबीर बिचार।
अर्थ : नित्य प्रति सुवह शाम प्रभु के नाम का सुमिरण करो तथा अंय सांसारिक कथाओं को त्याग दो। कबीर दास बहुत विचार कर सलाह देते हैं।
दोहा – 7
कथा किरतन कलि विषय, भव सागर की नाव कहै कबीर भव तरन को नाहि और उपाय।
अर्थ : इस कलयुग में भव सागर को पार करने के लिये कथा कीत्र्तन के अतिरिक्त अन्य कोई नाव नहीं है। कबीर कहते हंै कि इस संसार में मोक्ष प्राप्त करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
दोहा – 8
कंचन काई ना लगे, आग ना कीड़ा खाय बुरा भला होये वैषनु कदि ना नरके जाय।
अर्थ : सोना में कभी काई नहीं लगता और आग को भी कीड़ा नहीं खा सकता है। इसी तरह वैष्णव बुरा या भला हो कभी नरक नहीं जा सकता है।
दोहा – 9
एैसी वानी बोलिये, मन का आपा खोये औरन को शीतल करै आपहु शीतल होये।
अर्थ : ऐसी भाषा बोलें जिससे आपके मन-मिजाज का गर्व घमंड दूर हो जाये। इस से अन्य लोगभी निर्मल और शीतल होंगे और आप भी शीतल और पवित्र हो जायेंगे।
दोहा – 10
आबत गारी ऐक है, उलटत होय अनेक कहै कबीर नहि उलटिये वाही ऐक का ऐक।
अर्थ : कोई एक गाली देता है तो उलटकर उसे भी गाली देने पर वह अनेक हो जाता है। यदि उलट कर पुनः गाली नहीं दिया जाये तो वह एक का एक ही रह जाता है।
दोहा – 11
अति हठ मत कर बाबरे, हठ से बात ना होये ज्यों ज्यों भीजे कामरी, त्यों त्यों भारी होये।
अर्थ : मेरे प्रिये अत्यधिक जिद मत करो। हठ धर्मिता से कोई कोई बात नही बनती है। कम्बल ज्यों ज्यों भीगंता है त्यों त्यों वह अधिक भारी होता जाता है।
दोहा – 12
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोई आप ठगायै सुख उपजय, और ठगााये दुख होई।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि आप ठगे जाॅंये तो कोई बात नहीं। आप किसी को मत ठगे। आप ठगे जायेंगे तो सुख मिलेगा पर दूसरे को ठगने से आप को दुख होगा।
दोहा – 13
कबीर काहे को डरे, सिर पर सिरजनहार हस्ती चढ़ी डरिये नहीं, कुकर भुसै हजार।
अर्थ : कबीर भला क्यों डरे जब उनके सिर पर सृजनहार प्रभु की छत्र छाया है। हाथी पर चढ़ कर भला हजारों कुत्तों के भोंकने से भी क्या डर। हाथी ज्ञान वैराग्य का प्रतीक है।
दोहा – 14
कबीर खड़ा बजार मे, मांगे सबकी खैर ना काहु से दोस्ती, ना काहु से बैर।
अर्थ : कबीर संसार के बाजार में खड़े होकर सबके कल्याण की कामना करते हैं। उन्हंे तो किसी से नहीं मित्रता है और नहीं किसी से शत्रुता। वे सबके लिये समता का भाव रखतें है।
दोहा – 15
काल काम ततकाल है, बुरा ना कीजै कोई भलै भलाई पै लहै बुरे बुराई होई।
अर्थ : हमे अपने कर्मों का फल तुरंत मिलता है अतः किसी का बुरा नहीं करें। भला करने का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।
दोहा – 16
चतुर को चिंता धनी नहि मूरख को लाज सर अवसर जाने नहीं पेट भरन सु काज।
अर्थ : एक चालाक व्यक्ति को हमेशा चिंता बनी रहती है और मूर्ख को कभी लज्जा नहीं आती है। दोनों को समय-कुसमय अवसर की चिंता नहीं होती और उन्हें केवल अपना पेट भरने से मतलव रहता है।
दोहा – 17
जीवत कोय समुझैय नहि, मुआ ना कह संदेश तन मन से परिचय नहि, ताको क्या उपदेश।
अर्थ : कोई व्यक्ति जीवन काल में वास्तविक ज्ञान समझता नहीं है और मृत्यु के बाद उपदेश देना संभव नहीं है। लोगों को अपने मन और शरीर के महत्व का ज्ञान नहीं है तब उसे क्या उपदेश देने की सार्थकता है।
दोहा – 18
जिनमे जितनी बुिद्ध है, तितनो देत बताय वाको बुरा ना मानिये, और कहां से लाय।
अर्थ : जिसे जितना ज्ञान एंव बुद्धि है उतना वह बता देते हैं। तुम्हें उनका बुरा नहीं मानना चाहिये। उससे अधिक वे कहाॅं से लावें। यहाॅं संतो ंके ज्ञान प्राप्ति के संबंध में कहा गया है।
दोहा – 19
जिन ढ़ूढ़ा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ जो बउरा डूबन डरा, रहै किनारे बैठ।
अर्थ : जो गहरे पानी में डूब कर खोजेगा उसे ही मोती मिलेगा। जो डूबने से डर जायेगा वह किनारे बैठा रह जायेगा। आत्म ज्ञान प्राप्ति के लिये गहन साधना करनी पड़ती है।
दोहा – 20
जहां ना जाको गुण लहै तहां ना ताको ठाव धोबी बस के क्या करै, दिगम्बर के गांव।
अर्थ : जिस स्थान पर संत महात्मा एंव गुणी लोग नहीं हो वहाॅं रहना बसना उचित नहीं है। नंगे दिगंबर लोगों के गाॅंव में धोबी बस कर क्या पायेगा। गुणी लोगों की संगति करनी चाहिये।
दोहा – 21
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होये या आपा को डारि दे, दया करै सब कोये।
अर्थ : इस संसार में तुम्हारा कोई शत्रु नहीं हो सकता यदि तुम्हारा हृदय पवित्र एंव शीतल है। यदि तुम अपने घमंड और अहंकार को छोड़ दो तो सभी तुम्हारे उपर दयावान रहेंगे।
दोहा – 22
जैसा घटा तैसा मता, घट घट और सुभाव जा घठ हार ना जीत है, ता घट ब्रहम् समाय।
अर्थ : हृदय के अनुरुप ही विश्वास होता है। प्रत्येक हृदय का स्वभाव भिन्न है। जिस हृदय में हार या जीत की अनुभूति नहीं होती है वहाॅं प्रभु का वास होता है।
दोहा – 23
तीन तप मे ताप है, तिनका अंनत उपाय आतम तप महाबली, संत बिना नहि जाय।
अर्थ : तीनों ताप में दुख है पर उनके उपाय हैं। परंतु आत्मा के ताप-ज्ञान की प्राप्ति प्रभु में साक्षातकार बिना संत की संगति के संभव नहीं है। यहाॅं भौतिक ,दैहिक एंव दैविक ताप से अभिप्राय है।
दोहा – 24
धरम किये धन ना घटय, नदी ना घटय नीर अपनी आंखो देखलो यों कहि कथय कबीर।
अर्थ : धर्म पूर्वक जीवन यापन से धन नहीं घटता है। प्यासे को पानी पिलाने से नदी का जल कम नहीं होता यह प्रत्यक्ष है। कबीर इस सत्य को अपनी आॅंखो देखने और विश्वास करने के लिये कहते हंै।
दोहा – 25
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होये जैसा पानी पीजिये तैसी बानी सोये।
अर्थ : तामसी भोजन से मन भी तामसी और सात्विक भोजन से मन भी सात्विक हो जाता है। स्वच्छ और शीतल जल पीने से बोली-वाणी भी पवित्र और शीतल हो जाता है।
दोहा – 26
जो जल बढ़ैय नाव मे, घर मे बढ़ैय दाम दोनो हाथ उलीचिये येही सयानो काम।
अर्थ : यदि नाव में जल बढ़ने लगे और घर में धन की बृद्धि हो तो ज्ञानी-समझदार को उसे दोंनो हाथों से खाली करना चाहिये। दान पुण्य से धन की कमी नहीं होती है।
दोहा – 27
जो तोको कांटा बुबये ताको बो तू फूल तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल।
अर्थ : जो तुम्हारे लिये काॅंटा बोये तुम उसके लिये फूल बोओ। तुम्हारा फूल तुम्हें फूल के रुप में मिल जायेगा परंतु उसका काॅंटा उसे तीन गुणा अधिक काॅंटा के रुप में मिलेगा। अच्छे कर्म का फल अच्छा बुरे का तीन गुणा बुरा फल मिलता है।
दोहा – 28
बंदे तू कर बंदगी तो पावै दीदार औसर मानुस जनम का, बहुरि ना बारंबार।
अर्थ : हमे ईश्वर की भक्ति से उनका दुर्लभ दर्शन प्रप्त हो सकता है। मानव जीवन का यह दुर्लभ अवसर बार-बार नहीं लौटेगा।
दोहा – 29
या दुनिया दो रोज की मत कर यासे हेत हरि चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख देत।
अर्थ : यह संसार दो दिनों का है। इससे प्रेम और आशक्ति मत करो। ईश्वर के चरणों पर अपने चित्त को लगाओ तो तुम्हें पूर्ण सुख प्राप्त होगा।
दोहा – 30
स्वामी है संग्रह करै, दुजै दिन का नीर तारै ना तरै और को, यो कथि कहै कबीर।
अर्थ : कबीर कहते हैं जो संत दूसरे दिन के लिये भी जल का संग्रह करता है वह न तो स्वंय मुक्ति पा सकता है और नहीं अन्यों को इस भवसागर से मुक्त कर सकता है।
दोहा – 31
हार बड़ा हरि भजन करि, द्रव्य बड़ा कछु देह अकल बरी उपकार करि, जीवन का फल येह।
अर्थ : इस शरीर की महानता प्रभु की भक्ति में है। धन का बड़प्पन दूसरों को देने में है। ज्ञानी की उपयोगिता दूसरों के उपकार में है। इस जीवन की सार्थकता इसी में है।
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