अर्थ :जिस संत ने अपने पॉंच विषय इच्छाओं का शमन करलिया है-वह प्रशंसनीय है। जिसने अपने पॉंचो इच्छाओं का दमन नहीं किया-प्रभु उनके बहुत दूर है।
दोहा – 8
साधु सोए साराहिऐ,कनक कामिनी त्याग और कछु इक्छा नहीं, निश दिन रहे अनुराग
अर्थ :जिस साधु ने धन एंव स्त्री सुख का परित्याग कर दिया वह प्रशंनीय हैं। उन्हें अन्य कोई इच्छा नहीं रहती तथा वे सर्वदा ईश्वर की भक्ति में मगन रहते हैं।
दोहा – 9
हरि सेती हरिजन बरै जाने सन्त सूजान सेतु बांधि रघुबर चले किद गऐ हनूमान।
अर्थ :एक भक्ति प्रमात्मा से महान है। राम भगवान ने पुल बनाकर समुद्र पार किया पर हनुमान ने एक छलांग में उसे पार कर लिया।
दोहा – 10
हरि सो तु मति हेत करु कर हरिजान सो हेत माल मुलक हरि देत है हरिजन हरि ही देत।
अर्थ :हमें ईश्वर से नहीं अपितु ईश्वर के भक्तों से प्रेम करना चाहिये। ईश्वर हमें नशवान धन-संपत्ति देता है पर भक्त हमें ईश्वर हीं समर्पित कर देता है।
दोहा – 11
सो दिन गया अकाज में संगत भइ ना संत प्रेम बिना पशु जीवना भाव बिना भटकन्त।
अर्थ :वह दिन वरूर्थ गया जिस दिन संत से मिलय नहीं हो पाया। प्रेम बिना यह जीवन प्शु समान है जो किसी भाव के भटक रहा है।
दोहा – 12
साधु मिलेय साहिब मिलये अंतर रही ना रेख मनसा वाचा करमना साधु साहिब ऐक
अर्थ :साधु और परमरत्मर का मिलन एक ही है। इन दोनो में तनिक भी अन्तर नहीं है मनसा,वचा और कर्मणा संत एंव परमात्मर एक है।
दोहा – 13
साधु बड़े संसार में हरि ते अधिका सोये बिन इच्छा पूरन करे साधु हरि नहीं दोये।
अर्थ :संसार में साधु का स्थान बड़ा है। वह परमात्मा से भी अधिक हैं। बिना इच्छा किये संत सभी चीजें पूर्ण करते हैं। साधु एंव परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है।
दोहा – 14
साधु नदी जल प्रेम रस ताह परच्छा लइ अंग कहे कबीर निरमल भया हरि भक्तन के संग।
अर्थ :साधु प्रेम रस जल के नदी समान हैं। हमें उससे अपने मन एंव शरीर धोना चाहिऐ। प्रभु के भकतों के संग कबीर कर निर्मल एंव पवित्र हो जाता है।
दोहा – 15
सरवर तरुबर संतजन चौथा बरसे मेह परमारथ के कारने चारो धरि देह।
अर्थ :एक सरोवर वृक्ष संत व्यक्ति तथा चौथा वर्षा वाले वादल परर्माथ हेत हीं जन्म लेकर शरीर धारन करते हैं।