Kabir ke Dohe
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विरह – कबीर – दोहा

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दोहा – 1

अंखियाॅ तो झैन परि, पंथ निहार निहार
जीव्या तो छाला पारया, राम पुकार पुकार।

अर्थ : प्रभु की राह देखते-देखते आॅंखें में काला झम्ई पड़ गया है और राम का नाम
पुकारते-पुकारते जीव मे छाला पड़ गया है। प्रभु तुम कब आओगे।

दोहा – 2

अंखियाॅ प्रेम कसैया, जीन जाने दुखदै
राम सनेहि कारने, रो-रो रात बिताई।

अर्थ : राम के विरह में आॅंखे लाल हो गयी हैं। प्रभु तुम इसे आॅंख का रोग मत समझना
राम के प्रेम-स्नेह में पूरी रात रो-रो कर बीत रही है।

दोहा – 3

आये ना सकि हों तोहि पै, सकुन ना तुझे बुलाये
जियारा यों हि लेहुगे, बिराह तापै-तापै।

अर्थ : मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकता और न हीं तुम्हें अपने पास बुला सकतर हुॅं।
क्या तुम मुझे अपने विरह में जलाकर मेरे प्राण लेलोगें?

दोहा – 4

कबीर वैध्या बुलैया, पकड़ि के देखी बानहि
वैदया न वेदन जानसि, कारक कलेजि माहि।

अर्थ : कबीर कहते है गुरु रुपी वैद्य को बुलाया उसने मेरी बाॅह पकड़ कर देखी पर वह मेरे
रोग का निदान नहीं कर पाया कारण पीड़ा तो मेरे हृदय में है।

दोहा – 5

कयी ब्राहिनि को मीच दे, कयी आपा दिख लायी
आठ पहर का दझना मो पायी साहा ना जायी।

अर्थ : मैं चोंबीसो घंटे तुम्हारे विरह में जलता रहता हूॅं। या तो तुम अपना दर्शन र्दो अथवा
मृत्यु दो। अब यह विरह सहन नहीं कर पा रहा हूॅं।

दोहा – 6

जलो हमारा जिवना,यों मति जीवो कोई
सब कोई सुतो निंद भरि,हमको निंद ना होई।

अर्थ : मेरा जीवन ज्ञान अग्नि में जल रहा है। सांसारिक लोगों की तरह जीना बेकार है।
सभी लोग अज्ञान रुपी नींद में पूरी तरह निमग्न हैं पर मुझमें वह अज्ञान की नींद नहीं है।

दोहा – 7

जो जान बिरहि नाम के,झिने पिंजर तासु
नैन ना आबे निंदरि,देह ना छाढ़िया मानसु।

अर्थ : जो व्यक्ति प्रभु के नाम के विरह में तड़प् रहा हो-उसका शरीर गल कर कमजोर हो जाता है
उसके आॅंखें की नींद गायब हो जाती है और उसके देह पर मांस भी नहीं चढ़ता है।

दोहा – 8

देखत-देखत दिन गया,निशि भी देखत जाये
बिरहिनि पिव पावै नाहि,जियारा ताल्पहाथ जाये।

अर्थ : देख्ते-देखते रात और दिन बीत जाता है परंतु विरह में प्रभु को नहीं
पाने से तड़पते-तड़पते प्राण चला जायेगा।

दोहा – 9

पावक रुपि राम है,सब घट राहा समय
चित चकमक चाहते नाहि,धुवन हवै-हवै जाय।

अर्थ : भगवान अग्नि एंव प्रकाश स्वरुप हैं जो सभी शरीरों में समाहित हैं। राम रुपी प्रकाश का
चकाचोंध हमारे चित में समायोंजित नहीं हो पाता है और वह धुआॅं रुप में विलोपित हो जाता है।

दोहा – 10

अंदेसो नहीं भाग्सि,संदेसो नही आये
कयी हरि आया भाग सो,कयी हरि के पासे जाये।

अर्थ : मेरे भ्रम भी दूर नहीं होते और ईश्वर का कोई संदेश भी नहीं आ राहा हैं।
यह भ्रम और दुख तभी मिटेगा जब या तो प्रीभु आकर मिलें या मैं प्रभु के पास चला जाउॅं।

दोहा – 11

अबिनासि की सेज पर केलि करे आनंद
करहे कबीर वा सेज पर बिलसत परमानंद।

अर्थ : भक्त प्रमात्मा के सेज पर आनंद पूर्वक खेल रहा है। कबीर कहते हैं कि वह बिलासिता
पूर्वक उस बिछावन पर परमानंद प्राप्त करता है।

दोहा – 12

आग लगि संसार में,झारि-झारि परे संसार
कबीर जलि कंचन भया,कंच भया संसार।

अर्थ : संसार में बिषय-भेंगों और इच्छाओं की आग लगी है और उसकी चिंगारी पूरे संसार को
जला रही है। कबीर तो जल कर तपकर स्वर्ण हो गये है। पर संसार शीशा की तरह गल राह है।
कबीर भक्ति मार्ग की गुणवत्ता बता रहे हैं।

दोहा – 13

कबीर हंसना दूर करो,रोने से करु चीत
बिन रोये क्यों पाईये, प्रेम पियारा मीत।

अर्थ : कबीर हंसने अर्थात संसारिक सुख की चिंता नहीं करते और प्रभु के वियोग में रोने की सीख देते हैं।
प्रिय-प्यारे मित्र ईश्वर के लिये बिना व्याकुलता के उन्हें नहीं पाया जा सकता है।

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