Kabir ke Dohe
~Advertisement ~

सेवक – कबीर – दोहा

दोहा – 1

उलटे सुलटे बचन के, सीस ना मानै दुख
कहै कबीर संसार मे, सो कहिये गुरु मुख।

अर्थ : गुरु के सही गलत कथन से शिष्य कभी दुखी नहीं होता है।
कबीर कहते है की वही शिष्य सच्चा गुरु मुख कहलाता है।

दोहा – 2

कबीर कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाव
डोरी लागी प्रेम की, जित खैंचे तित जाव।

अर्थ : कबीर कहते है की वे राम का कुत्ता है। उनका नाम मोतिया है।
उन के गले में प्रेम की रस्सी बांधी गई है। उन्हें जिधर खींचा जाता है। वे उधर ही जाते है।

दोहा – 3

कबीर गुरु और साधु कु, शीश नबाबै जाये
कहै कबीर सो सेवका, महा परम पद पाये।

अर्थ : कबीर का कथन है की जो नित्य नियमतः गुरु और संत के चरणों में
सिर झुकाता है वही गुरु का सच्चा सेवक महान पद प्राप्त कर सकता है।

दोहा – 4

कहै कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर
जाका चित जासो बसै, सो तिहि सदा हजूर।

अर्थ : कबीर के कहते है की जिसके हृदय में गुरु के प्रति प्रेम रहता है।
वह न तो कभी दूर न ही निकट होता है। जिसका मन चित्त जहाॅ लगा रहता है।
वह सर्वदा गुरु के समझ ही हाजिर रहता है।

दोहा – 5

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल
लोक वेद दोनो गये, आगे सिर पर काल।

अर्थ : जो गुरु के आदेशों को नहीं मानता है और मनमाने ठंग से चलता है उसके दोनों लोक परलोक
व्यर्थ हो जाते है और भविश्य में काल मौत उसके सिर मंडराता रहता है।

दोहा – 6

गुरु आज्ञा लै आबही, गुरु आज्ञा लै जाये
कहै कबीर सो संत प्रिया, बहु बिध अमृत पाये।

अर्थ : जो गुरु की आज्ञा से ही कहीं आता जाता है वह संतो का प्रिय होता है।
उसे अनेक प्रकार से अमृत की प्राप्ति होती है।

दोहा – 7

गुरुमुख गुरु आज्ञा चलै, छाड़ी देयी सब काम
कहै कबीर गुरुदेव को, तुरत करै प्रनाम।

अर्थ : गुरु का सच्चा शिष्य उनके आज्ञा के अनुसार ही सब काम को छोड़ कर चलता है।
कबीर कहते है की वह गुरुदेव देखकर तुरंत झुक कर प्रणाम करता है।

दोहा – 8

आस करै बैकुंठ की, दुरमति तीनो काल
सुक्र कही बलि ना करै, तातो गयो पताल।

अर्थ : स्वर्ग की आशा में उसकी दुष्ट बुद्धि से उसके तीनों समय नष्ट हो गये।
उसे गुरु शुक्राचार्य के आदेशों की अवहेलना के कारण नरक लोक जाना पड़ा।

दोहा – 9

अनराते सुख सोबना, राते निन्द ना आये
ज्यों जाल छुटि माछरि, तलफत रैन बिहाये।

अर्थ : प्रभु प्रेम से बिमुख नीन्द में सोते है परन्तु उन्हें रात में निश्चिन्तता की नीन्द नहीं आती है।
जल से बाहर मछली जिस तरह तड़पती रहती है उसी तरह उनकी रात भी तड़पती हुई बीतती है।

दोहा – 10

चतुर विवेेकी धीर मत, छिमावान, बुद्धिवान
आज्ञावान परमत लिया, मुदित प्रफुलित जान।

अर्थ : एक भक्त समझदार,विवेकी,स्थिर विचार,क्षमाशील,बुद्धिमान,आज्ञाकारी,ज्ञानी एंव मन से
सदा खुस रहने वाला होता है। ये सब भक्तके लक्षण हंै।

दोहा – 11

तु तु करु तो निकट हैं, दुर दुर करु तो जाये
ज्यों हरि राखै त्यों रहे, जो देबै सो खाये।

अर्थ : यदि प्रभु बुलाते है तो मैं निकट आ जाता हूॅ। वे यदि दूर कहते है तो मैं बहुत दूर चला जाता हूॅं।
प्रभु को जिस प्रकार रखना होता है मैं वैसे ही रहता हूॅं। वे जो भी खाने को देते है मैं वही खा कर रहता हूॅं।
मैं प्रभु पर पूरी तरह निर्भर हूॅं।

दोहा – 12

फल करन सेवा करै, निश दिन जाॅंचै राम
कहै कबीर सेवक नहीं, चाहै चैगुन दाम।

अर्थ : जो सेवक इच्छा पुर्ति के लिये सेवा करता है ईश्वर प्रतिदिन उसकी भक्ति की परीक्षा लेता है।
कबीर कहते है की वह सेवक नहीं है। वह तो अपनी सेवा के बदले चार गुणा कीमत वसुलना चाहता है।

दोहा – 13

भोग मोक्ष मांगो नहि, भक्ति दान हरि देव
और नहि कछु चाहिये, निश दिन तेरी सेव।

अर्थ : प्रभु मैं आप से किसी प्रकार भोग या मोक्ष नही चाहता हॅू। मुझे आप भक्ति का दान देने की कृपा करैं।
मुझे अन्य किसी चीज की इच्छा नहीं है। केवल प्रतिदिन मैं आपकी सेवा करता रहूॅं।

दोहा – 14

येह मन ताको दिजिये, सांचा सेवक होये
सिर उपर आरा सहै, तौ ना दूजा होये।

अर्थ : यह मन उन्हें अर्पित करों जो प्रभु का सच्चा सेवक हो। अगर उसके सिर पर
आरा भी चले तब भी वह तुम्हें छोड़कर किसी अन्य की शरण में नहीं जाये।

दोहा – 15

माधव को भावै नहीं,सो हमसो जनि होये
सदगुरु लाजय आपना, साधु ना मानये कोये।

अर्थ : हे प्रभु मैं कोई ऐसा काम नहीं करुॅं जो आपको अच्छा नहीं लगता हो। इस से प्रभु मेरे कारण
लज्जित होते है और मुझे भी कोई संत नहीं मान सकता है।

दोहा – 16

साहिब के दरबार मे, कामी की नाहि
बंदा मौज ना पावही, चूक चाकरी माहि।

अर्थ : ईश्वर के दरवार में किसी चीज की कोई कमी नहीं है। यदि मुझे उनकी कृपा नहीं प्राप्त हो रही है
तो मेरी सेवा में कोई कमी या खोट है।

दोहा – 17

सब कुछ हरि के पास है, पाइये आपने भाग
सेवक मन सौंपै रहै, रहे चरन मे लाग।

अर्थ : भ्गवान के पास सब कुछ है। हम उनसे अपने हिस्से का पा सकते है।
भक्त सेवक अपना मन पुर्णरुपेन समर्पित कर उनके चरणों में आसक्ति रखें।

दोहा – 18

सतगुरु शब्द उलंघि कर, जो सेवक कहु जाये
जहाॅ जाये तहाॅं काल है, कहै कबीर समुझाये।

अर्थ : प्रभु के वचतन को अनसुना कर यदि कोई भक्त सेवक कहीं अन्यत्र जाता है तो वह जहाॅ जायेगा-मृत्यु उसका
पीछा करेगा। कबीर इस तथ्य को समझा कर कहते है।

दोहा – 19

सेवक के बल बहुत है, सबको करत अधीन
देव दनुज नर नाग सब, जेते जगत प्रवीन।

अर्थ : प्रभु का सेवक बहुत शक्ति शाली होता है। वह सबको अपने अधीन कर लेता है।
देवता, आदमी, राक्षस,सांप इस विश्व के समस्त प्राणी उसके नियंत्रन मे हो जाते है।

दोहा – 20

सेवक फल मांगे नहीं, सेब करे दिन रात
कहै कबीर ता दास पर, काल करै नहि घात।

अर्थ : प्रभु का सेवक कुछ भी फल नहीं मांगता है। वह केवल दिन रात सेवा करता है।
कबीर का कहना है की उस दास पर मृत्यु या काल भी चोट या नुक्सान नहीं कर सकता है।

दोहा – 21

सेवक स्वामी ऐक मत, मत मे मत मिलि जाये
चतुरायी रीझै नहीं, रीझै मन के भाये।

अर्थ : जब तक स्वामी और सेवक का विचार मिलकर एक नहीं हो जाता है तब तक प्रभु किसी प्रकार की
बुद्धिमानी, चतुराई से प्रशन्न नहीं हाते है। वे तो केवल मन के समर्पण भाव से खुस होते है।

दोहा – 22

सेवक सेवा मे रहै, सेवक कहिये सोय
कहै कबीर सेवा बिना, सेवक कभी ना होय।

अर्थ : सेवक को सदा सेवा में रत रहना चाहिये। उसे ही सच्चा सेवक कहेंगे।
कबीर कहते है की सेवा किये बिना कोई सच्चा सेवक नहीं हो सकता है।

यह भी पढे – गुरु-दक्षिणा – Donation Of Guru

यह भी पढे – स्वंय पर विश्वास – Believe In Yourself

Note:- इन कहानियों मे प्रयोग की गई सभी तस्वीरों को इंटरनेट से गूगल सर्च और बिंग सर्च से डाउनलोड किया गया है।

Note:-These images are the property of the respective owner. Hindi Nagri doesn’t claim the images.

यह भी पढे –

सभी कहानियों को पढ़ने के लिए एप डाउनलोड करे/ Download the App for more stories:

Get it on Google Play