छाया – Shadow
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मैंने सुना है कि एक गांव में एक बार एक आदमी को एक बड़ा पागलपन सवार हो गया। वह एक रास्ते से गुजर रहा था। भरी दोपहरी थी, अकेला रास्ता था, निर्जन था। तेजी से चल रहा था कि निर्जन में कोई डर न हो जाए। हालाकि डर वहां हो भी सकता है, जहां कोई और हो, जहां कोई भी नहीं है, वहां डर का क्या उपाय हो सकता है! लेकिन हम वहां बहुत डरते हैं, जहां कोई भी नहीं होता है। असल में हम अपने से ही डरते हैं। और जब हम अकेले रह जाते हैं, तो बहुत डर लगने लगता है। हम अपने से जितना डरते हैं, उतना किसी से भी नहीं डरते। इसलिए कोई साथ हों —कोई भी साथ हो —तो भी डर कम लगता है। और बिलकुल अकेले रह जाएं, तो बहुत डर लगने लगता है। वह आदमी अकेला था और डर गया और भागने लगा। और सन्नाटा था, सुनसान था, दोपहर थी, कोई भी न था। जब वह तेजी से भागा, तो उसे अपने ही पैरों की आवाज पीछे से आती हुई मालूम पड़ी। और वह डरा कि शायद कोई पीछे है। फिर उसने डरे हुए, चोरी की आख से पीछे झांककर देखा, तो एक लंबी छाया उसका पीछा कर रही थी। वह उसकी अपनी ही छाया थी। लेकिन यह देखकर कि कोई लंबी छाया पीछे पड़ी हुई है, वह और भी तेजी से भागा। फिर वह आदमी कभी रुक नहीं सका मरने के पहले। क्योंकि वह जितनी तेजी से भागा, छाया उतनी ही तेजी से उसके पीछे भागी। फिर वह आदमी पागल हो गया। लेकिन पागलों को पूजनेवाले भी मिल जाते हैं। जब वह गांव से भागता हुआ निकलता और लोग देखते कि वह भागा जा रहा है, तो लोग समझते कि वह बड़ी तपश्चर्या में रत है। वह कभी रुकता नहीं था। वह सिर्फ रात के अंधेरे में रुकता था, जब छाया खो जाती थी। तब वह सोचता था कि अब कोई पीछे नहीं है। सुबह हुई और वह भागना शुरू कर देता था। फिर तो बाद में उसने रात में भी रुकना बंद कर दिया। उसे ऐसा समझ में आया कि जब तक मैं विश्राम करता हूं?
मालूम होता है, जितना दूर भागकर दिन भर में मैं दूर निकलता हूं, उतनी देर में छाया फिर वापस आ जाती है, सुबह फिर मेरे पीछे हो जाती है। तब उसने रात में भी रुकना बंद कर दिया। फिर वह पूरा पागल हो गया। फिर वह खाता भी नहीं, पीता भी नहीं। भागते हुए लाखों की भीड़ उसको देखती,फूल फेंकती। कोई राह चलते उसके हाथ में रोटी पकड़ा देता, कोई पानी पकड़ा देता। उसकी पूजा बढ़ती चली गई। लाखों लोग उसका आदर करने लगे। लेकिन वह आदमी पागल होता चला गया। और अंततः वह आदमी एक दिन गिरा और मर गया। गांव के लोगों ने, जिस गांव में वह मरा था, उसकी कब्र बना दी एक वृक्ष के नीचे छाया में। और उस गांव के एक बूढ़े फकीर से उन्होंने पूछा कि हम इसकी कब्र पर क्या लिखें?
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तो उस फकीर ने एक लाइन उसकी कब पर लिख दी। किसी गांव में, किसी जगह, वह कब्र अब भी है। हो सकता है, कभी आपका उस जगह से निकलना हो, तो पढ़ लेना। उस कब्र पर उस फकीर ने लिख दिया है कि यहां एक ऐसा आदमी सोता है, जो जिंदगी भर अपनी छाया से भागता रहा है, जिसने जिंदगी छाया से भागने में गंवा दी। और उस आदमी को इतना भी पता नहीं था, जितना उसकी कब को पता है। क्यौंकि कब्र छाया में है और भागती नहीं, इसलिए कब्र की कोई छाया ही नहीं बनती है। इसके भीतर जो सोया है उसे इतना भी पता नहीं था, जितना उसकी कब को पता है। हम भी भागते हैं। हमें आश्चर्य होगा कि कोई आदमी छाया से भागता था। हम सब भी छायाओं से ही भागते रहते हैं। और जिससे हम भागते हैं, वही हमारे पीछे पड़ जाता है। और जितनी तेजी से हम भागते हैं, उसकी दौड़ भी उतनी ही तेज हो जाती है, क्योंकि वह हमारी ही छाया है। मृत्यु हमारी ही छाया है। और अगर हम उससे भागते रहे तो हम उसके सामने कभी खड़े होकर पहचान न पाएंगे कि वह क्या है। काश, वह आदमी रुक जाता और पीछे लौटकर देख लेता, तो शायद अपने पर हंसता और कहता, कैसा पागल हूं, छाया से भागता हूं। -ओशो”
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