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क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

Yoga through Distinguishing the Field and the Knower of the Field

The thirteenth chapter of the Bhagavad Gita is “Ksetra Ksetrajna Vibhaaga Yoga”. The word “kshetra” means “the field”, and the “kshetrajna” means “the knower of the field”. We can think of our material body as the field and our immortal soul as the knower of the field. In this chapter, Krishna discriminates between the physical body and the immortal soul. He explains that the physical body is temporary and perishable whereas the soul is permanent and eternal. The physical body can be destroyed but the soul can never be destroyed. The chapter then describes God, who is the Supreme Soul. All the individual souls have originated from the Supreme Soul. One who clearly understands the difference between the body, the Soul and the Supreme Soul attains the realization of Brahman.

क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

भगवद गीता का तेरवाह अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग है। क्षेत्र शब्द का मतलब भूमि और क्षेत्ररक्षण का मतलब क्षेत्र का जानकार है। हमारा भौतिक शरीर क्षेत्र के सामान है और हमारी अमर आत्मा क्षेत्र के जानकार के सामान है। इस अध्याय में, कृष्ण भौतिक शरीर और अमर आत्मा के बीच भेद करते हैं। वह बताते हैं कि भौतिक शरीर अस्थायी और विनाशकारी है जबकि आत्मा स्थायी और शाश्वत है। भौतिक शरीर नष्ट हो सकता है लेकिन आत्मा कभी भी नष्ट नहीं हो सकती। यह अध्याय फिर भगवान का वर्णन करता है, जो की सर्वोच्च आत्मा हैं। सभी व्यक्तिगत आत्माएं सर्वोच्च आत्मा से उत्पन्न हुई हैं। जो स्पष्ट रूप से शरीर, आत्मा और सर्वोच्च आत्मा के बीच अंतर को समझ लेता है वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

Bhagavad Gita

अध्याय 13 – श्लोक 6

श्लोक 6 - Verse 6महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.6।।mahā-bhūtāny ahankāro buddhir avyaktam eva cha indriyāṇi daśhaikaṁ cha pañcha chendriya-gocharāḥशब्दों का अर्थmahā-bhūtāni—the (five) great...
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अध्याय 13 – श्लोक 34

श्लोक 34 - Verse 34यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।yathā prakāśhayaty ekaḥ kṛitsnaṁ lokam imaṁ raviḥ kṣhetraṁ kṣhetrī tathā kṛitsnaṁ prakāśhayati...
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अध्याय 13 – श्लोक 12

श्लोक 12 - Verse 12अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.12।।adhyātma-jñāna-nityatvaṁ tattva-jñānārtha-darśhanam etaj jñānam iti proktam ajñānaṁ yad ato ’nyathāशब्दों का अर्थadhyātma—spiritual; jñāna—knowledge; nityatvam—constancy; tattva-jñāna—knowledge of spiritual principles;...
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अध्याय 13 – श्लोक 11

श्लोक 11 - Verse 11मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.11।।mayi chānanya-yogena bhaktir avyabhichāriṇī vivikta-deśha-sevitvam aratir jana-sansadiशब्दों का अर्थmayi—toward me; cha—also; ananya-yogena—exclusively united; bhaktiḥ—devotion; avyabhichāriṇī—constant; vivikta—solitary; deśha—places; sevitvam—inclination for;...
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अध्याय 13 – श्लोक 20

श्लोक 20 - Verse 20प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।।prakṛitiṁ puruṣhaṁ chaiva viddhy anādī ubhāv api vikārānśh cha guṇānśh chaiva viddhi prakṛiti-sambhavānशब्दों का...