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मोक्षसंन्यासयोग

Yoga through the Perfection of Renunciation and Surrender

The eighteenth chapter of the Bhagavad Gita is “Moksha Sanyas Yoga”. Arjuna requests the Lord to explain the difference between the two types of renunciations – sanyaas(renunciation of actions) and tyaag(renunciation of desires). Krishna explains that a sanyaasi is one who abandons family and society in order to practise spiritual discipline whereas a tyaagi is one who performs their duties without attachment to the rewards of their actions and dedicating them to the God. Krishna recommends the second kind of renunciation – tyaag. Krishna then gives a detailed analysis of the effects of the three modes of material nature. He declares that the highest path of spirituality is pure, unconditional loving service unto the Supreme Divine Personality, Krishna. If we always remember Him, keep chanting His name and dedicate all our actions unto Him, take refuge in Him and make Him our Supreme goal, then by His grace, we will surely overcome all obstacles and difficulties and be freed from this cycle of birth and death.

त्याग और समर्पण की पूर्णता के माध्यम से योग

भगवद गीता का अठारहवा अध्याय मोक्षसन्यासयोग है। अर्जुन कृष्ण से अनुरोध करते हैं कि वे संन्यास और त्याग के बीच अंतर को समझाने की कृपा करें। कृष्ण बताते हैं कि एक संन्यासी वह है जो आध्यात्मिक अनुशासन का अभ्यास करने के लिए परिवार और समाज को त्याग देता है जबकि एक त्यागी वह है जो अपने कर्मों के फलों कि चिंता करे बिना भगवन को समर्पित करके कर्म करता रहता है। कृष्ण बताते हैं कि त्याग संन्यास से श्रेष्ठ है। फिर कृष्णा भौतिक संसार के तीन प्रकार के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। कृष्णा घोषणा करते हैं कि परमात्मा की शुद्ध एवं सत्य भक्ति ही आध्यात्मिकता का उच्चतम मार्ग है। अगर हम हर क्षण उनका स्मरण करते रहें, उनका नाम जपते रहें, अपना सर्वस्व उनको समर्पित कर दें, उन्हें ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य बना लें तो उनकी कृपा से हम निश्चित रूप से सभी बाधाओं और कठिनाइओं को दूर कर पाएंगे और इस जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पाएंगे।

Bhagavad Gita

अध्याय 18 – श्लोक 58

श्लोक 58 - Verse 58मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।mach-chittaḥ sarva-durgāṇi mat-prasādāt tariṣhyasi atha chet tvam ahankārān na śhroṣhyasi vinaṅkṣhyasiशब्दों का अर्थmat-chittaḥ—by always remembering me;...
Bhagavad Gita

अध्याय 18 – श्लोक 57

श्लोक 57 - Verse 57चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।18.57।।chetasā sarva-karmāṇi mayi sannyasya mat-paraḥ buddhi-yogam upāśhritya mach-chittaḥ satataṁ bhavaशब्दों का अर्थchetasā—by consciousness; sarva-karmāṇi—every...
Bhagavad Gita

अध्याय 18 – श्लोक 56

श्लोक 56 - Verse 56सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।sarva-karmāṇy api sadā kurvāṇo mad-vyapāśhrayaḥ mat-prasādād avāpnoti śhāśhvataṁ padam avyayamशब्दों का अर्थsarva—all; karmāṇi—actions; api—though; sadā—always; kurvāṇaḥ—performing;...
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अध्याय 18 – श्लोक 55

श्लोक 55 - Verse 55भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।bhaktyā mām abhijānāti yāvān yaśh chāsmi tattvataḥ tato māṁ tattvato jñātvā viśhate tad-anantaramशब्दों...
Bhagavad Gita

अध्याय 18 – श्लोक 54

श्लोक 54 - Verse 54ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।brahma-bhūtaḥ prasannātmā na śhochati na kāṅkṣhati samaḥ sarveṣhu bhūteṣhu mad-bhaktiṁ labhate...
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अध्याय 18 – श्लोक 53

श्लोक 53 - Verse 53अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।ahankāraṁ balaṁ darpaṁ kāmaṁ krodhaṁ parigraham vimuchya nirmamaḥ śhānto brahma-bhūyāya kalpateशब्दों का...
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अध्याय 18 – श्लोक 52

श्लोक 52 - Verse 52विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।vivikta-sevī laghv-āśhī yata-vāk-kāya-mānasaḥ dhyāna-yoga-paro nityaṁ vairāgyaṁ samupāśhritaḥशब्दों का अर्थvivikta-sevī—relishing solitude; laghu-āśhī—eating light; yata—controls; vāk—speech; kāya—body; mānasaḥ—and...
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अध्याय 18 – श्लोक 51

श्लोक 51 - Verse 51बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।18.51।।buddhyā viśhuddhayā yukto dhṛityātmānaṁ niyamya cha śhabdādīn viṣhayāns tyaktvā rāga-dveṣhau vyudasya chaशब्दों...
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अध्याय 18 – श्लोक 50

श्लोक 50 - Verse 50सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।siddhiṁ prāpto yathā brahma tathāpnoti nibodha me samāsenaiva kaunteya niṣhṭhā...
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अध्याय 18 – श्लोक 49

श्लोक 49 - Verse 49असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।asakta-buddhiḥ sarvatra jitātmā vigata-spṛihaḥ naiṣhkarmya-siddhiṁ paramāṁ sannyāsenādhigachchhatiशब्दों का अर्थasakta-buddhiḥ—those whose intellect is unattached; sarvatra—everywhere; jita-ātmā—who have...