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Home श्रीमदभगवत गीता ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

Path of Knowledge and the Disciplines of Action

The fourth chapter of the Bhagavad Gita is “Jnana Karma Sanyasa Yoga”. In this chapter, Krishna glorifies the Karma Yoga and imparts the Transcendental Knowledge (the knowledge of the soul and the Ultimate Truth) to Arjuna. He reveals the reason behind his appearance in this material world. He reveals that even though he is eternal, he reincarnates time after time to re-establish dharma and peace on this Earth. His births and activities are eternal and are never contaminated by material flaws. Those persons who know and understand this Truth engage in his devotion with full faith and eventually attain Him. They do not have to take birth in this world again.

 

ज्ञान का मार्ग और कार्रवाई के अनुशासन

भगवद गीता का चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग योग है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण कर्मयोग का गुणगान करते हैं अथवा अर्जुन को आत्मा एवं परम सत्य का बोध कराते हैं। वे भौतिक संसार में अपनी उपस्तिथि के पीछे कारण का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि भले ही वह अनन्त हैं, फिर भी वह इस धरती पर धर्म और शांति को पुन: स्थापित करने के लिए समय समय पर जन्म लेते रहते हैं। उनके जन्म और क्रियाकलाप शाश्वत हैं और सामूहिक दोषों से कभी भी दूषित नहीं होते हैं। वे मनुष्य जो इस सत्य को जानते और समझते हैं, वे संपूर्ण श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति करते हैं और अंततः उन्हें प्राप्त करते हैं। उनहे इस दुनिया में फिर से जन्म लेने की जरूरत नहीं है।

Bhagavad Gita

अध्याय 4 – श्लोक 42

श्लोक 42 - Verse 42तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।4.42।।tasmād ajñāna-sambhūtaṁ hṛit-sthaṁ jñānāsinātmanaḥ chhittvainaṁ sanśhayaṁ yogam ātiṣhṭhottiṣhṭha bhārataशब्दों का अर्थtasmāt—therefore; ajñāna-sambhūtam—born of ignorance; hṛit-stham—situated...
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अध्याय 4 – श्लोक 41

श्लोक 41 - Verse 41योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्। आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।।yoga-sannyasta-karmāṇaṁ jñāna-sañchhinna-sanśhayam ātmavantaṁ na karmāṇi nibadhnanti dhanañjayaशब्दों का अर्थyoga-sannyasta-karmāṇam—those who renounce ritualistic karm, dedicating their...
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अध्याय 4 – श्लोक 40

श्लोक 40 - Verse 40अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।ajñaśh chāśhraddadhānaśh cha sanśhayātmā vinaśhyati nāyaṁ loko ’sti na paro na sukhaṁ...
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अध्याय 4 – श्लोक 39

श्लोक 39 - Verse 39श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।śhraddhāvān labhate jñānaṁ tat-paraḥ sanyatendriyaḥ jñānaṁ labdhvā parāṁ śhāntim achireṇādhigachchhatiशब्दों का अर्थśhraddhā-vān—a faithful person;...
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अध्याय 4 – श्लोक 38

श्लोक 38 - Verse 38न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।na hi jñānena sadṛiśhaṁ pavitramiha vidyate tatsvayaṁ yogasansiddhaḥ kālenātmani vindatiशब्दों का अर्थna—not;...
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अध्याय 4 – श्लोक 37

श्लोक 37 - Verse 37यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।yathaidhānsi samiddho ’gnir bhasma-sāt kurute ’rjuna jñānāgniḥ sarva-karmāṇi bhasma-sāt kurute tathāशब्दों का अर्थyathā—as; edhānsi—firewood; samiddhaḥ—blazing; agniḥ—fire;...
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अध्याय 4 – श्लोक 36

श्लोक 36 - Verse 36अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।4.36।।api ched asi pāpebhyaḥ sarvebhyaḥ pāpa-kṛit-tamaḥ sarvaṁ jñāna-plavenaiva vṛijinaṁ santariṣhyasiशब्दों का अर्थapi—even; chet—if;...
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अध्याय 4 – श्लोक 35

श्लोक 35 - Verse 35यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35।।yaj jñātvā na punar moham evaṁ yāsyasi pāṇḍava yena bhūtānyaśheṣheṇa drakṣhyasyātmanyatho mayiशब्दों का...
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अध्याय 4 – श्लोक 34

श्लोक 34 - Verse 34तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।tad viddhi praṇipātena paripraśhnena sevayā upadekṣhyanti te jñānaṁ jñāninas tattva-darśhinaḥशब्दों का अर्थtat—the Truth; viddhi—try...
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अध्याय 4 – श्लोक 33

श्लोक 33 - Verse 33श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।4.33।।śhreyān dravya-mayād yajñāj jñāna-yajñaḥ parantapa sarvaṁ karmākhilaṁ pārtha jñāne parisamāpyateशब्दों का अर्थśhreyān—superior; dravya-mayāt—of material possessions;...