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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

Path of Knowledge and the Disciplines of Action

The fourth chapter of the Bhagavad Gita is “Jnana Karma Sanyasa Yoga”. In this chapter, Krishna glorifies the Karma Yoga and imparts the Transcendental Knowledge (the knowledge of the soul and the Ultimate Truth) to Arjuna. He reveals the reason behind his appearance in this material world. He reveals that even though he is eternal, he reincarnates time after time to re-establish dharma and peace on this Earth. His births and activities are eternal and are never contaminated by material flaws. Those persons who know and understand this Truth engage in his devotion with full faith and eventually attain Him. They do not have to take birth in this world again.

 

ज्ञान का मार्ग और कार्रवाई के अनुशासन

भगवद गीता का चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग योग है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण कर्मयोग का गुणगान करते हैं अथवा अर्जुन को आत्मा एवं परम सत्य का बोध कराते हैं। वे भौतिक संसार में अपनी उपस्तिथि के पीछे कारण का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि भले ही वह अनन्त हैं, फिर भी वह इस धरती पर धर्म और शांति को पुन: स्थापित करने के लिए समय समय पर जन्म लेते रहते हैं। उनके जन्म और क्रियाकलाप शाश्वत हैं और सामूहिक दोषों से कभी भी दूषित नहीं होते हैं। वे मनुष्य जो इस सत्य को जानते और समझते हैं, वे संपूर्ण श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति करते हैं और अंततः उन्हें प्राप्त करते हैं। उनहे इस दुनिया में फिर से जन्म लेने की जरूरत नहीं है।

Bhagavad Gita

अध्याय 4 – श्लोक 22

श्लोक 22 - Verse 22यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।yadṛichchhā-lābha-santuṣhṭo dvandvātīto vimatsaraḥ samaḥ siddhāvasiddhau cha kṛitvāpi na nibadhyateशब्दों का अर्थyadṛichchhā—which comes of...
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अध्याय 4 – श्लोक 21

श्लोक 21 - Verse 21निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।nirāśhīr yata-chittātmā tyakta-sarva-parigrahaḥ śhārīraṁ kevalaṁ karma kurvan nāpnoti kilbiṣhamशब्दों का अर्थnirāśhīḥ—free from expectations; yata—controlled; chitta-ātmā—mind...
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अध्याय 4 – श्लोक 20

श्लोक 20 - Verse 20त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।tyaktvā karma-phalāsaṅgaṁ nitya-tṛipto nirāśhrayaḥ karmaṇyabhipravṛitto ’pi naiva kiñchit karoti saḥशब्दों का अर्थtyaktvā—having given up;...
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अध्याय 4 – श्लोक 19

श्लोक 19 - Verse 19यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।yasya sarve samārambhāḥ kāma-saṅkalpa-varjitāḥ jñānāgni-dagdha-karmāṇaṁ tam āhuḥ paṇḍitaṁ budhāḥशब्दों का अर्थyasya—whose; sarve—every; samārambhāḥ—undertakings; kāma—desire...
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अध्याय 4 – श्लोक 18

श्लोक 18 - Verse 18कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।karmaṇyakarma yaḥ paśhyed akarmaṇi cha karma yaḥ sa buddhimān manuṣhyeṣhu...
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अध्याय 4 – श्लोक 17

श्लोक 17 - Verse 17कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।karmaṇo hyapi boddhavyaṁ boddhavyaṁ cha vikarmaṇaḥ akarmaṇaśh cha boddhavyaṁ gahanā karmaṇo...
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अध्याय 4 – श्लोक 16

श्लोक 16 - Verse 16किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।kiṁ karma kim akarmeti kavayo ’pyatra mohitāḥ tat te karma pravakṣhyāmi yaj...
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अध्याय 4 – श्लोक 15

श्लोक 15 - Verse 15एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4.15।।evaṁ jñātvā kṛitaṁ karma pūrvair api mumukṣhubhiḥ kuru karmaiva tasmāttvaṁ...
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अध्याय 4 – श्लोक 14

श्लोक 14 - Verse 14न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4.14।।na māṁ karmāṇi limpanti na me karma-phale...
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अध्याय 4 – श्लोक 13

श्लोक 13 - Verse 13चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।chātur-varṇyaṁ mayā sṛiṣhṭaṁ guṇa-karma-vibhāgaśhaḥ tasya kartāram api māṁ viddhyakartāram avyayamशब्दों का अर्थchātuḥ-varṇyam—the four categories...