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विश्वास – कबीर – दोहा
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दोहा – 1
कबिरा चिंता क्या करु, चिंता से क्या होय
मेरी चिंता हरि करै, चिंता मोहि ना कोय।
मेरी चिंता हरि करै, चिंता मोहि ना कोय।
अर्थ : कबीरा क्यों चिंता करै? चिंता से क्या होगा? मेरी चिंता प्रभु करते हैं।
मुझे किसी तरह की कोई चिंता नहीं है।
मुझे किसी तरह की कोई चिंता नहीं है।
दोहा – 2
जाके दिल मे हरि बसै, सो जन कलपैै काहि
एक ही लहरि समुद्र की, दुख दारिद बहि जाहि।
एक ही लहरि समुद्र की, दुख दारिद बहि जाहि।
अर्थ : कोई व्यक्ति क्यों दुखी होवे या रोये यदि उसके हृदय मे प्रभु का निवास है।
समुद्र के एक हीं लहर से व्यक्ति के सारे दुख एंव दरिद्रता बह जायेगें।
समुद्र के एक हीं लहर से व्यक्ति के सारे दुख एंव दरिद्रता बह जायेगें।
दोहा – 3
साई इतना दीजिऐ, जामे कुटुम समाय
मैं भी भूखा ना रहूॅं साधु ना भूखा जाय।
मैं भी भूखा ना रहूॅं साधु ना भूखा जाय।
अर्थ : प्रभु मुझे इतनी संपदा दें जिससे मेरा परिवार समाहित हो सके
मेरा भी पालन हो जाये और कोई संत-अतिथि भी भूखा न जा सके।
मेरा भी पालन हो जाये और कोई संत-अतिथि भी भूखा न जा सके।
दोहा – 4
ऐसा कोन अभागिया जो बिस्वासे और
राम बिना पग धारन कु, कहो कहां है ठाौर।
राम बिना पग धारन कु, कहो कहां है ठाौर।
अर्थ : जो व्यक्ति प्रभु के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र विश्वास करता है-वह अभागा है।
राम के अतिरिक्त पैर रखने की कहीं जगह नहीं मिल सकती है।
राम के अतिरिक्त पैर रखने की कहीं जगह नहीं मिल सकती है।
दोहा – 5
हरिजन गांठ ना बान्धिये उदर समाना लेय
आगे पीछे हरि खरे जो मांगे सो देय।
आगे पीछे हरि खरे जो मांगे सो देय।
अर्थ : प्रभु का भक्त संग्रह करने हेतु कुछ भी नहीं लेता है।
वह मात्र पेट भर खाने की याचना करता है। ईश्वर सदा उसके पीछे खड़े रहते है
तथा भक्त जो भी मांगता है-प्रभु उसे पूरा करते हैं।
वह मात्र पेट भर खाने की याचना करता है। ईश्वर सदा उसके पीछे खड़े रहते है
तथा भक्त जो भी मांगता है-प्रभु उसे पूरा करते हैं।
दोहा – 6
अब तु काहे को डरै सिर पर हरि का हाथ
हस्ति चढ़ा कर डोलिये, कूकर भूसे जु लाख।
हस्ति चढ़ा कर डोलिये, कूकर भूसे जु लाख।
अर्थ : अब तुम क्यों डरते हो जब हरि का हाथ तुम्हारे सिर पर है।
तुम हाथी पर चढ़कर निर्मय भ्रमण करो भले हीं लाखों कुत्ते तुम्हारी निन्दा में भोंके।
तुम हाथी पर चढ़कर निर्मय भ्रमण करो भले हीं लाखों कुत्ते तुम्हारी निन्दा में भोंके।
दोहा – 7
आगे पीछे हरि खरा, आप समहारे भार
जन को दुखी क्यों करे, समरथ सिरजन हार।
जन को दुखी क्यों करे, समरथ सिरजन हार।
अर्थ : भगवान भक्त के आगे पीछे खड़े रहते हैं। वे स्वंय भक्त का भार अपने उपर ले लेते हैं।
वे किसी भक्त को दुखी नहीं करना चाहते क्योंकि वे सर्व शक्तिमान हैं।
वे किसी भक्त को दुखी नहीं करना चाहते क्योंकि वे सर्व शक्तिमान हैं।
दोहा – 8
बिस्वासी हवै हरि भजय, लोहा कंचन होय
राम भजे अनुराग से, हरख सोक नहि दोय।
राम भजे अनुराग से, हरख सोक नहि दोय।
अर्थ : राम का भजन विश्वास पूर्वक करों-लोहा भी सोना हो जायेगा। यदि राम का भजन प्रेम पूर्वक
किया जाये तो हर्ष और शोक दोनो कभी नहीं हो सकते। लोहा से सोना का तात्पर्य व्यक्ति का परिष्कार है।
किया जाये तो हर्ष और शोक दोनो कभी नहीं हो सकते। लोहा से सोना का तात्पर्य व्यक्ति का परिष्कार है।
दोहा – 9
राम नाम की लौ लगी, जग से दूर रहाय
मोहि भरोसा इस्ट का, बंदा नरक ना जाय।
मोहि भरोसा इस्ट का, बंदा नरक ना जाय।
अर्थ : जो राम से आकर्षित हो जाता है वह सांसारिक इच्छाओं से दूर हो जाता है।
कबीर को विश्वास है कि अपने इष्ट-भगवान के कारण अब वह नरक नहीं जायेगा।
कबीर को विश्वास है कि अपने इष्ट-भगवान के कारण अब वह नरक नहीं जायेगा।
दोहा – 10
राम किया सोई हुआ, राम करै सो होय
राम करै सो होऐगा, काहे कलपै कोय।
राम करै सो होऐगा, काहे कलपै कोय।
अर्थ : ईश्वर ने जो पूर्व में किया वहीं हुआ। राम जो कर रहे है-वहीं हो रहा हैं।
प्रभु जो भविष्य में करेंगे -वहीं होगा। तो फिर कोई क्यों रोता कलपता है।
प्रभु जो भविष्य में करेंगे -वहीं होगा। तो फिर कोई क्यों रोता कलपता है।
दोहा – 11
राखनहारा राम है, जाय जंगल मे बैठ
हरि कोपै नहि उबरै सात पताले पैठ।
हरि कोपै नहि उबरै सात पताले पैठ।
अर्थ : यदि कोई जंगल में है तब भी भगवान उस की रक्षा करते हैं पर भगवान यदि किसी पर
कुपित हो तो सात तह पाताल लोक में भी उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता।
कुपित हो तो सात तह पाताल लोक में भी उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता।
दोहा – 12
मुरदे को भी देत है कपड़ा पानी आग
जीवत नर चिंता करै, ताका बड़ा अभाग।
जीवत नर चिंता करै, ताका बड़ा अभाग।
अर्थ : ईश्वर मुर्दा के लिये भी कफन कपड़ा,पानी और आग का इंतजाम कर देता है।
अतः जीवित मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह अपने जीवन यापन की चिंता करता है।
अतः जीवित मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह अपने जीवन यापन की चिंता करता है।
दोहा – 13
मेरी चिंता हरि करै क्या करु मै चिंत
हरि को चित्यो हरि करै, ता पर रहु निहचिंत।
हरि को चित्यो हरि करै, ता पर रहु निहचिंत।
अर्थ : मेरे लिये प्रभु चिंता करते हैं। मुझे चिंता करने की जरुत नहीं है।
जो ईश्वर का निरतंन चिन्तन करता है-प्रभु अपने जीवों की चिंता स्वयं करते है।
जो ईश्वर का निरतंन चिन्तन करता है-प्रभु अपने जीवों की चिंता स्वयं करते है।
दोहा – 14
जो संचा बिस्वास है, तो दुख क्यों न जाय
कहै कबीर विचारि के तन मन देहि जराय।
कहै कबीर विचारि के तन मन देहि जराय।
अर्थ : यदि ह्दय में परमात्मा के प्रति सच्चा विश्वास हापे तो सभी दुखों का अंत हो जाता है।
कबीर का विचार है कि ईश्वर भक्तों के हृदय के पास एंव दुखाों को भस्म कर देते हैं।
कबीर का विचार है कि ईश्वर भक्तों के हृदय के पास एंव दुखाों को भस्म कर देते हैं।
दोहा – 15
चिंता छोरि अचिंत रह देनहार समरथ
पसु पखेरु जन्तु जीव, तिन के गंथि ना हाथ।
पसु पखेरु जन्तु जीव, तिन के गंथि ना हाथ।
अर्थ : चिंता मत करो निश्चिंत रहो, देने वाले ईश्वर सामर्थयवान है।
पशु,पक्षी,जीव,जंतु के पास न तो कोई गांठ है ओर न ही हाथ। ईश्वर सबका पालनहार हैं।
पशु,पक्षी,जीव,जंतु के पास न तो कोई गांठ है ओर न ही हाथ। ईश्वर सबका पालनहार हैं।
दोहा – 16
काहे को तलफत फिरै, काहे पाबै दुख
पहिले रिजक बनाय के, पीछे दिनो दुख।
पहिले रिजक बनाय के, पीछे दिनो दुख।
अर्थ : क्यों तुम तरपते फिरहे हो? क्यों तुम दुख पा रहे हो?
ईश्वर ने पहले भोजन एंव जीवन यापन का साधन वनाया है तब भूख का सृजन किया है।
ईश्वर ने पहले भोजन एंव जीवन यापन का साधन वनाया है तब भूख का सृजन किया है।
दोहा – 17
पौ फटी पगरा भया, जगै जीव जून
सब काहु को देत है, चोंच समाना चून।
सब काहु को देत है, चोंच समाना चून।
अर्थ : अंधकार मिटा और प्रकाश हुआ। सभी प्राणी जग गये। प्रभु सभी जीव
जंतुओं को चोंच के सक्षम भोजन देता है तो किस बात की चिंता करते हो।
जंतुओं को चोंच के सक्षम भोजन देता है तो किस बात की चिंता करते हो।
दोहा – 18
कबीर या जग आये के, किये बहूत जो मीत
जिन दिल बंधा ऐक सो, सो सुख सोबै निसचिंत।
जिन दिल बंधा ऐक सो, सो सुख सोबै निसचिंत।
अर्थ : कबीर का कहना है कि इस संसार में जन्म लेने के बाद अनेकों मित्र बनाये।
यदि केवल एक परमात्मा से दिल को बांध लेते तो निश्चिंत हो कर सोते।
यदि केवल एक परमात्मा से दिल को बांध लेते तो निश्चिंत हो कर सोते।
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