यजुर्वेद – Yajurveda
जो नर यज्ञ – हवन करते हैं इह – पर में वे सुख पाते हैं
पर उपकार में रत रहते हैं श्रेष्ठ कर्म से यश पाते हैं ।
धर्म मार्ग ईश्वर ने दिखाया सत्य न्याय से युक्त वही है
वह ही शुभचिंतक है सबका पुरुषार्थ मात्र का श्रोत वही है ।
जैसा कर्म जीव करता है वैसा ही प्रतिफल पाता है
दुष्ट कर्म का प्रतिफल दुख है मनुज इसी से दुख पाता है ।
ईश्वर का आदेश यही है दुष्ट बुध्दि का त्याग हम करें
प्रेरित हो कर फिर सत्पथ पर हर मानव का दुख हरें ।
वेद – ज्ञान के द्वारा मानव श्रेष्ठ मार्ग का बने सृजेता
सत्कर्मों के माध्यम से वह शत्रु जीत कर बने विजेता ।
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सृष्टि ब्रह्म की अद्भुत अनुपम सूर्य जगत को करे प्रकाशित
वसुधा होती पुष्ट वायु से यह धरती हमसे हो रक्षित ।
नर पाए आरोग्य यज्ञ से व्याधि नाश हो यश – विस्तार
पूर्ण आयु ले जिए धरा पर सुख – समृध्दि सतत हो सार ।
दुष्ट- बुध्दि नर पीडा पाते निम्न योनियों में जाते हैं
सत्य धर्म के पथिक संत ही कष्ट – क्लेश से बच पाते हैं ।
मात- पिता षड् – ऋतु सम होते देते हैं उत्तम उपदेश
उन्हें नित्य संतुष्ट रखें हम पायें सदा सुखद सन्देश ।
बाल्य- काल में मात- पिता ज्यों संतति को देते आकार
उन्हें सदा ही हम कृतज्ञ बन गरिमा- मय देवें व्यवहार ।
पर- हित चिन्तन होता जिसका विद्यावान वही होता है
नभ शुचि होता यज्ञ धूम से आरोग्य तभी पावस देता है ।
राजपुरुष का यज्ञ न्याय है जन- हित हो राजा का ध्येय
धर्म अर्थ और काम मोक्ष हो हर मानव का चिंतन श्रेय ।
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ईश्वर का आदेश यही है सिंहासन उत्तम जन को सौंपो
सुख से भर दो वसुन्धरा को क्षुद्र-पुरुष को कभी न सौंपो ।
आज्ञा यह भी है ईश्वर की उत्तम हो व्यक्तित्व तुम्हारा
जड्ता कभी न हो तन- मन में जग पूरा परिवार हमारा ।
विद्याओं में जो पारंगत हो राजतंत्र का हो अधिकारी
सतजन की रक्षा करता हो दुर्जन हेतु विपद हो भारी ।
ब्रह्मचर्य है पहला आश्रम उत्तम विद्या ग्रहण करे नर
द्वितीय गृहस्थाश्रम में सञ्चय तृतीय आश्रम धर्मम् चर ।
चतुर्थ आश्रम संन्यासी का बन संन्यासी धर्म धरे नर
वेद – गिरा का करे प्रकाश तम मेटे आलोक प्रभा धर ।
सुख वैभव यदि नर चाहे तो निज स्वभाव स्तर अनुरुप
निज इच्छा से विवाह कर ले मोद मनाये निजस्वरुप ।
ज्यों पश्चिम जा कर विद्वद्जन करें वस्तुओं का सन्धान
नर – नारी उत्तम सन्तति से श्रेष्ठ गुणों के बनें निधान ।
दो ही तीर्थ धरा पर पावन गुरु सेवा विद्या अद्वितीय
उदधि – पार आने जाने में हों समर्थ जो तीर्थ – द्वितीय ।
सत्य न्याय चहुँ हो आलोकित न्यायासन पर सज्जन हों
दुष्टों को जो दण्ड दे सकें सिंहासन पर पावन नर हों ।
सेना – नायक वही बने जो धर्म मार्ग का अनुयायी हो
दया-रहित हो दुष्टों के प्रति सज्जन का वह अनुगामी हो ।
जैसे सेनापति सेना को सूर्य मेघ को वर्धित करता
वैसे ही गुरु सदाचरण से प्राणिमात्र की सेवा करता ।
सभी लोक ज्यों सूर्य लोक से उत्तम आश्रय पाते हैं
श्रेष्ठ पुरुष वैसा ही आश्रय निज आश्रित को दे जाते हैं ।
मात पिता निज संतति की ज्यों रक्षा करते प्रेरित करते
अध्यापक भी निज शिष्यों को विद्या से संवर्धित करते ।
औषधियों से होम जो करता जग को सुरभित करता है
सर्वाधिक शुभचिंतक है जग का महादान वह ही करता है ।
गो- धन की जो सेवा करता अति परोपकारी है वह नर
जो भी भावुक पशुपालक है वास करे सुख वैभव के घर ।
व्यथित कभी भी आत्मा न हो नितप्रति इसका ध्यान रखें
वज्रपात न करें किसी पर बन कर कृतज्ञ निज को परखें ।
वेद – वाङमय जो कहते हैं हम करें उसी का अनुष्ठान
संतति को मॉं सँस्कारित करती वैसे ही सबको देवें ज्ञान ।
पथ- औषधि का सेवन करके करें प्रकाशित निज जीवन
विद्वद् जन की सेवा करके सेवा भावी बन जाए तन – मन ।
बढ जाता है मान मान से सदा दूसरों को दें मान
मान – महत्ता के ज्ञाता को शीर्ष सदृश अति उत्तम मान ।
आत्मा तन से जब जाती है वही भाव नित मन में हो
शव के जल जाने पर कोई संस्कार कभी न उसका हो ।
परमेश्वर है एक सदा से उपासना हो उसी की प्रतिदिन
कर्म नहीं निष्फल होता है रहें धर्म में रत छिन- पल- छिन ।
ऋग्वेद सदृश हो उत्तम वाणी यजुर्वेद सम उज्ज्वल मन
हो सामवेद सम प्राञ्जल प्राण अथर्ववेद सम हो यह तन ।
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