मैं जानू हरि दूर है हरि हृदय भरपूर मानुस ढुढंहै बाहिरा नियरै होकर दूर।
अर्थ : लोग ईश्वर को बहुत दूर मानते हैं पर परमात्मा हृदय में पूर्णतः विराजमान है। मनुष्य उसे बाहर खोजता है परंतु वह निकट होकर भी दूर लगता है।
दोहा – 2
मोमे तोमे सरब मे जहं देखु तहं राम राम बिना छिन ऐक ही, सरै न ऐको काम।
अर्थ : मुझ में तुम में सभी लोगों में जहाॅं देखता हूॅं वहीं राम है। राम के बिना एक क्षण भी प्रतीत नहीं होता है। राम के बिना कोई कार्य सफल नहीं होता है।
दोहा – 3
बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम।
अर्थ : प्रभु बाहर-भीतर सर्वत्र विद्यमान है। यही आॅंखें का सुख है। जहाॅं भी दृष्टि जाती है। वही राम दिखाई देते है। राम से रिक्त कोई स्थान नहीं है। प्रभु सर्वव्यापक हैं।
दोहा – 4
राम नाम तिहुं लोक मे सकल रहा भरपूर जो जाने तिही निकट है, अनजाने तिही दूर।
अर्थ : तीनों लोक में राम नाम व्याप्त है। ईश्वर पूर्णाता में सर्वत्र वत्र्तमान हैं। जो जानता हे-प्रभु उसके निकट हैं परंतु अनजान-अज्ञानी के लिये बहुत दूर हैं।
दोहा – 5
हथियार मे लोह ज्यों लोह मध्य हथियार कहे कबीर त्यों देखिये, ब्रहम मध्य संसार।
अर्थ : जैसे हथियार में लोहा और लोहा में हथियार है उसी प्रकार कबीर के अनुसार यह संसार भी ब्रहम के बीच वसा है। ब्रहम बिना संसार का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता।
दोहा – 6
पुहुप मध्य ज्यों बाश है,ब्यापि रहा जग माहि संतो महि पाइये, और कहीं कछु नाहि।
अर्थ : जिस प्रकार पुष्प में सुगंध है उसी तरह ईश्वर संपूर्ण जगत में व्याप्त हैं। यह ज्ञान हमें संतों से हीं प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र कुछ भी नहीं है।
दोहा – 7
कबीर खोजी राम का गया जु सिंघल द्वीप साहिब तो घट मे बसै जो आबै परतीत।
अर्थ : कबीर ईश्वर को ढूढ़ने श्रीलंका द्वीपतक गये किंतु ईश्वर तो शरीर में ही विद्यमान हैं। यदि तुम्हें विश्वास हो तो तुम उन्हें अपने हृदय में ही पा लोगे।
दोहा – 8
घट बिन कहूॅं ना देखिये राम रहा भरपूर जिन जाना तिन पास है दूर कहा उन दूर।
अर्थ : कोई भी शरीर राम से शुन्य नहीं है। सभी शरीर में ईश्वर पूर्ण रुपेण वत्र्तमान हैं। जो ज्ञानी है उसके पास ही ईश्वर हैं। जो उन्हें दूर मानता है- भगवान उससे बहुत दूर हैं।
दोहा – 9
घट बढ़ कहूॅं ना देखिये प्रेम सकल भरपूर जानै ही ते निकट है अनजाने तै दूर।
अर्थ : परमात्मा कहीं भी कम या अधिक नहीं हैं। वे सभी जगत पूर्ण परमात्मा हैं-प्रेम से परिपूर्ण हैं। ज्ञानी के लिये वे अति निकट और अज्ञानी के लिये बहुत दूर हैं।
दोहा – 10
ज्यों बघुरा बब मध्य, मध्य बघुरा बब त्यों ही जग मधि ब्रहम है, ब्रहम मधि जगत सुभाव।
अर्थ : जिस प्रकार तूफान के बीच हवा और हवा के बीच तूफान स्थित है उसी प्रकार संसार के बीच ब्रहम और स्वभाविक रुप से ब्रहम के बीच संसार स्थित है।
दोहा – 11
ज्यों पाथर मे आग है,त्यों घट मे करतार जो चाहो दीदार को चकमक होके जार।
अर्थ : जिस प्रकार पत्थर में आग है उसी तरह प्रत्येक शरीर में प्रभु वसतें हैं। यदि तुम परमात्मा को देखना चाहते हो तो ज्ञान के आग में मन और माया को जलाओं।
दोहा – 12
जैसे तरुबर बीज मह, बीज तरुबर माहि कहे कबीर बिचारि के, जग ब्रहम के माहि।
अर्थ : जिस प्रकार वृक्ष बीज में स्थित है तथा बीज वृक्ष में उपस्थित है-उसी प्रकार यह संपूर्ण संसार ब्रहम में है। यह कबीर का निश्चित विचार है।
दोहा – 13
ज्यों नैनो मे पुतली, त्यों खालिक घट माहि मूरख लोग ना जानही, बाहिर ढूढ़न जाहि।
अर्थ : आॅंखों में पुतली की भाॅंति हीं प्रत्येक शरीर में प्रभु विराजमान है। यह मुर्ख और अज्ञानी नहीं जानते और उन्हें काशी-कावा,मंदिर-मस्जिद में खोजने जाते हैं।
दोहा – 14
जा कारण जग ढूढ़ीये, सो तो घटहि माहि परदा दिया भरम का तातै सूझय नाहि।
अर्थ : प्रभु को हम पूरे जग में खोजते फिरते हैं परंतु वह तो हमारे शरीर में हीं बसता है। अविश्वास और भ्रम का परदा हमें प्रभु को देखने नहीं देता है।
दोहा – 15
उहवन तो सब ऐक है, परदा रहिया वेश भरम करम सब दूर कर, सब ही माहि अलेख।
अर्थ : परमात्मा के यहाॅं सब एक समान है। लेकिन यह शरीर और वेष परदा की तरह काम करता है। हमें अपने समस्त भ्रम को दूर करना चाहिये तब हमें ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति हो सकती है।