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क्रोध – कबीर – दोहा
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दोहा – 1
जहां काम तहां नाम नहीं,जहां नाम नहि काम दोनो कबहू ना मिलैय रवि रजनी एक ठाम।
अर्थ : जहाॅं काम,वसाना,इच्छा हो वहाॅं प्रभु नहीं रहते और जहाॅं प्रभु रहते है वहाॅं काम,वासना,इच्छा नहीं रह सकते। इन दोनों का मिलन असंभव है जैसे सुर्य एंव रात्रि का मिलन नहीं हो सकता।
दोहा – 2
यह जग कोठी काठ की, चहुं दिश लागी आाग भीतर रहै सो जलि मुअै, साधू उबरै भाग।
अर्थ : यह संसार काठ के महल की भाॅंति है जिसके चतुर्दिक आगलगी है। इसके अंदर का प्राणी जल मरता है पर साधु बचकर भाग जाता है। यहाॅं क्रोध आग का परिचायक है। साधु समस्त क्रोध-विकार से वंचित है।
दोहा – 3
दसो दिशा से क्रोध की उठि अपरबल आग शीतल संगत साध की तहां उबरिये भाग।
अर्थ : सम्पूर्ण संसार क्रोध की अग्नि से चतुर्दिक जल रहा है। यह आग अत्यंत प्रवल है। लेकिन संत साधु की संगति शीतल होती है जहाॅं हम भाग कर बच सकते हैं।
दोहा – 4
क्रोध अगिन घर घर बढ़ी, जलै सकल संसार दीन लीन निज भक्त जो तिनके निकट उबार।
अर्थ : घर-घर क्रोध की अग्नि से सम्पूर्ण संसार जल रहा है परंतु ईश्वर का समर्पित भक्त इस क्रोध की आग से अपने को शीतल कर लेता है। वह सांसरिक तनावों एंव कष्ठों से मुक्त हो जाता है।
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