Kabir ke Dohe
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बुद्धि – कबीर – दोहा

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दोहा – 1

जिनमे जितनी बुद्धि है, तितनो देत बताय
वाको बुरा ना मानिये, और कहां से लाय।

अर्थ : जिसे जितना ज्ञान एंव बुद्धि है उतना वह बता देते हैं। तुम्हें उनका बुरा नहीं मानना चाहिये।
उससे अधिक वे कहाॅं से लावें। यहाॅं संतो के ज्ञान प्राप्ति के संबंध कहा गया है।

दोहा – 2

कोई निन्दोई कोई बंदोई सिंघी स्वान रु स्यार
हरख विशाद ना केहरि,कुंजर गज्जन हार।

अर्थ : किसी की निन्दा एंव प्रशंसा से ज्ञानी व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
सियार या कुत्तों के भौंकने से सिंह पर कोई असर नहीं होता कारण वह तो हाथी को भी मार सकता है।

दोहा – 3

दुखिया मुआ दुख करि सुखिया सुख को झूर
दास आनंदित राम का दुख सुख डारा दूर।

अर्थ : दुखी प्राणी दुख मे मरता रहता है एंव सुखी व्यक्ति अपने सुख में जलता रहता है
पर ईश्वर भक्त हमेशा दुख-सुख त्याग कर आनन्द में रहता है।

दोहा – 4

पाया कहे तो बाबरे,खोया कहे तो कूर
पाया खोया कुछ नहीं,ज्यों का त्यों भरपूर।

अर्थ : जो व्यक्ति कहता है कि उसने पा लिया वह अज्ञानी है और जो कहता है
कि उसने खो दिया वह मूढ़ और अविवेकी है ईश्वर तत्व में पाना और खोना नहीं है
कारण वह सर्वदा सभी चीजों में पूर्णत्व के साथ उपस्थित है।

दोहा – 5

हिंदु कहुॅं तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहि
पंच तत्व का पूतला गैबी खेले माहि।

अर्थ : मैं न तो हिन्दु हूॅ अथवा नहीं मुसलमान। इस पाॅंच तत्व के शरीर में बसने वाली
आत्मा न तो हिन्दुहै और न हीं मुसलमान।

दोहा – 6

हिन्दू तो तीरथ चले मक्का मुसलमान
दास कबीर दोउ छोरि के हक्का करि रहि जान।

अर्थ : हिन्दू तीर्थ करने जाते हैं।मुसलमान मक्का जाते हैं।
कबीर दास दोनो छोड़कर परमात्माके निवास आत्मा में बसते हैं।

दोहा – 7

अति का भला ना बोलना,अति की भली ना चूप
अति का भला ना बरसना, अति की भली ना धूप।

अर्थ : अधिक बोलना अथवा अधिक चुप रहना अच्छा नहीं होता
जैसे की अधिक बरसना या अधिक धूप रहना अच्छा नहीं होता।

दोहा – 8

आबत सब जग देखिया, जात ना देखी कोई
आबत जात लखई सोई जाको गुरुमत होई।

अर्थ : बालक के जन्म को सब देखते हैं पर किसी की मृत्यु के बाद उसकी क्या दशा हुई-कोई नहीं जानता।
आने-जाने के इस रहस्य को वही समझ पाता है जिसनेे गुरु से आत्म तत्व कर ज्ञान प्राप्त किया हो।

दोहा – 9

हिन्दू तुरक के बीच में मेरा नाम कबीर
जीव मुक्तवन कारने अबिकत धरा सरीर।

अर्थ : हिन्दू और मुस्लिम के बीच मेरा नाम कबीर है। मैंने अज्ञानी लोगों को अधर्म और
पाप से मुक्त करने हेतु शरीर धारन किया है।

दोहा – 10

मांगन मरन समान है तोहि दयी मैं सीख
कहे कबीर समुझाइ के मति मांगे कोइ भीख।

अर्थ : कबीर शिक्षा देते हैं कि माॅंगना मृत्यु के समान है। कबीर समझाकर कहते है की कोई भी व्यक्ति
भीख नहीं माॅंगे। यहाॅं कबीर कर्मशील बनने की शिक्षा देते है।

दोहा – 11

तन का बैरी काइे नहीं जो मन सीतल होय
तु आपा केा डारि दे दया करे सब कोय।

अर्थ : यदि आप अपने मन को शांत एंव शीतल रखंे तो कोई भी आपका दुश्मन नहीं होगा
यदि आप अपनी प्रतिष्ठा एंव घमंड को दूर रखें तो सारा संसार आपको प्रेम करेगा।

दोहा – 12

तरुबर पात सो युॅं कहे सुनो पात एक बात
या घर यही रीति है एक आबत एक जात।

अर्थ : वृक्ष पत्तों से एक बात सुनने का आग्रह करता है की यहाॅं संसार में एक आने और जाने का रिवाज है।
जीवन एंव मृत्यु का यह चक्र अविरल चलता रहता है।

दोहा – 13

कबीर गर्व ना कीजिये उंचा देखि आवास
काल परौ भंुयी लेटना उपर जमसी घास।

अर्थ : कबीर अपने उॅंचें गृह आवास को देखकर घमंड नहीं करने की सलाह देते हैं।
संभव है कल्ह तुम्हें जमीन पर लेटना होगा जिस पर घास उगेंगेे।

दोहा – 14

चिउटी चावल ले चली बीच मे मिलि गयी दाल
कहे कबीर दौउ ना मिलै एक लै दूजी दाल।

अर्थ : चींटी चावल का दाना लेकर चली तो बीच में उसे दाल मिला पर वह दोनों नहीं पा सकती है।
उसे एक छोड़ना पड़ेगा। प्रभु भक्तिके लिये उसे संसारिक माया-मोह छोड़ना होगा।

दोहा – 15

तन का बैरी कोई नहीं जो मन सीतल होये
तु आपा को डारी दे, दया करै सब कोई।

अर्थ : यदि तुम्हारा मन शांत,निर्मल एंव पवित्र है तो तुम्हारा कोई शत्रु नही है।
यदि तुमने अपने मान-समान-अभिमान का परित्याग कर दिया है तो सारा संसार तुमसे प्रेम करेगा।

दोहा – 16

पाहन ही का देहरा पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा क्यों करि माने सेव।

अर्थ : पथ्थर के बने मंदिर में भगवान भी पथ्थर के हीं हैं।
पूजारी अंधे की तरह विवेकहीन है तो ईश्वर उसकी पूजा से कैसे प्रसन्न होंगे।

दोहा – 17

मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर
तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।

अर्थ : शरीर मन के अनुसार क्रियाशील है। अतः पहले मन पर नियंत्रन करें
जो व्यक्ति अपने मन और शरीर दोंनो का नियंत्रन कर लेता है
वह शीघ्र ही एक अन्न के दाने से सुमेरु पर्वत के समान वैभवशील हो सकता है।

दोहा – 18

मन के हारे हार है मन के जीते जीत
कहे कबीर गुरु पाइये,मन ही के परतीत।

अर्थ : यदि मन से उत्साह पूर्वक जीत अनुभव करते हैं तो अवश्य आप की जीत होगी।
यदि आप हृदय से गुरु की खोज करेंगे तो निश्चय हीं आपको सदगुरु मिलकर रहेंगे।

दोहा – 19

जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर
सहजय हीरा नीपजय, जो मन आबै ठौर।

अर्थ : समुद्र मे जिस तरह असंख्य लहरें उठती है उसी प्रकार मन विचारों कर अनगिनत तरंगे आती-जाती है।
यदि अपने मन को सहज, सरल और शांत कर लिया जाये तो सत्य का ज्ञान संभव है।

दोहा – 20

चिउटी चावल ले चली बीच मे मिलि गयी दाल
कहे कबीर दौउ ना मिलै एक लै दूजी दाल।

अर्थ : चींटी चावल का दाना लेकर चली तो बीच में उसे दाल मिला पर वह दोनों नहीं पा सकती है।
उसे एक छोड़ना पड़ेगा। प्रभु भक्तिके लिये उसे संसारिक माया-मोह छोड़ना होगा।

दोहा – 21

तन का बैरी कोई नहीं जो मन सीतल होये
तु आपा को डारी दे, दया करै सब कोई।

अर्थ : यदि तुम्हारा मन शांत,निर्मल एंव पवित्र है तो तुम्हारा कोई शत्रु नही है।
यदि तुमने अपने मान-समान-अभिमान का परित्याग कर दिया है तो सारा संसार तुमसे प्रेम करेगा।

दोहा – 22

पाहन ही का देहरा पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा क्यों करि माने सेव।

अर्थ : पथ्थर के बने मंदिर में भगवान भी पथ्थर के हीं हैं।
पूजारी अंधे की तरह विवेकहीन है तो ईश्वर उसकी पूजा से कैसे प्रसन्न होंगे।

दोहा – 23

मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर
तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।

अर्थ : शरीर मन के अनुसार क्रियाशील है। अतः पहले मन पर नियंत्रन करें
जो व्यक्ति अपने मन और शरीर दोंनो का नियंत्रन कर लेता है
वह शीघ्र ही एक अन्न के दाने से सुमेरु पर्वत के समान वैभवशील हो सकता है।

दोहा – 24

मन के हारे हार है मन के जीते जीत
कहे कबीर गुरु पाइये,मन ही के परतीत।

अर्थ : यदि मन से उत्साह पूर्वक जीत अनुभव करते हैं तो अवश्य आप की जीत होगी।
यदि आप हृदय से गुरु की खोज करेंगे तो निश्चय हीं आपको सदगुरु मिलकर रहेंगे।

दोहा – 25

जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर
सहजय हीरा नीपजय, जो मन आबै ठौर।

अर्थ : समुद्र मे जिस तरह असंख्य लहरें उठती है उसी प्रकार मन विचारों कर अनगिनत तरंगे आती-जाती है।
यदि अपने मन को सहज, सरल और शांत कर लिया जाये तो सत्य का ज्ञान संभव है।

दोहा – 26

कागद केरी नाव री, पानी केरी गंग
कहे कबीर कैसे तिरे, पाॅंच कुसंगी संग।

अर्थ : यह शरीर कागज की तरह नाशवान है जो संसार रुपी नदी के इच्छााओं-वासनावओं में डूबा हुआ है।
जब तक अपने पाॅंचों ज्ञानेद्रियों का नियंत्रन नहीं कर लिया जाता है तब तक संसार से मुक्ति नहीं हो सकती।

दोहा – 27

चिंता चित्त बिसारिये, फिर बुझिये नहीं आन
इंद्री पसारा मेटिये सहज मिले भगवान।

अर्थ : समस्त चिंताओं को अपने मन से निकाल दें। इसके सबंध मे कभी न सोचें।
अपने समस्त बिषय-विकारों का नियंत्रन करें तो ईश्वर की प्राप्ति सुगमता से हो सकती है।

दोहा – 28

जीना थोड़ा ही भला, हरि का सुमरन होई
लाख बरस का जीवना, लिखै धरै ना कोई।

अर्थ : एक संक्षिप्त जीवन जिसमें प्रभु का स्मरण किया जाये-अच्छा है परंतु लाखों वर्षों का
जीवन भी वेकार है क्योंकि उसका हिसाब किताब कौन कैसे रख सकते है।

Note:- इन कहानियों मे प्रयोग की गई सभी तस्वीरों को इंटरनेट से गूगल सर्च और बिंग सर्च से डाउनलोड किया गया है।

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