भक्ति महल बहुत उॅच है दूरैहि ते दर्शाय जो कोइ जन भक्ति करै शोभा बरनि ना जाई।
अर्थ : ईश्वर भक्ति का महल बहुत उॅंचा है। यह बहुत दूर से ही दिखाई पड़ता है। जो भी ईश्वर भक्ति में लीन हैं लोग उसके गुणों की ओर सहज हीं आकर्षित होते हैं।
दोहा – 2
कस्तुरी कुंडल बसै,मृग ढूढ़ै वन माहि ऐसे घट घट राम हैं,दुनिया देखे नाहि।
अर्थ : मृग के नाभि में कस्तुरी रहता है पर वह जंगल में ढूंढ़तेे रहती है। ईश्वर सर्वत्र वत्र्तमान हैं परंतु दुनिया उन्हें देख नहीं पाती है।
दोहा – 3
कबीर खोजी राम का गया जो सिंघल द्वीप राम तौ घट भीतर रमि रहै जो आबै परतीत।
अर्थ : कबीर ईश्वर की तलाश में सिंधल द्वीप गये हैं। किंतु प्रभु तो प्रत्येक घर में अंतरआत्मा में आनंद पूर्वक रमन करते हैं यदि हमें उसकी प्रतीति-उपस्थिति का अनुभव हो।
दोहा – 4
ज्यों नैना में पुतली त्यों खालिक घट माहि मुरखि लोग ना जानही बाहरि ढूंढ़न जाहि।
अर्थ : जिस प्रकार पुतली आॅंख में रहती है उसी प्रकार प्रभु प्रत्येक घर-धर में वसते हैं। मूर्ख लोग इसे नहीं जानते और उन्हें बाहर ढूंढ़ने जाते हैं।
दोहा – 5
प्रेम ना खेती उपजय प्रेम ना हाट बिकाय राजा प्रजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाय।
अर्थ : प्रेम न तो खेत में उपजता है और नहीं यह बाजार में बिकता है। राजा या प्रजा जो भी प्रेम प्राप्त करना चाहता है उसे अपना सर्वस्व त्याग करने को तत्पर रहना चाहिये।
दोहा – 6
जब मन लागा लोभ सां,गया विषय मैं भोय कही कबीर विचारि के, केहि प्रकार धन होय।
अर्थ : जब हमारा मन लोभ-लालच में डूबा रहता है तो हम बिषय-बासना,ईच्छा में डूबते जातें हैं। कबीर का स्पष्ट मत कि तब हमें धन नहीं प्राप्त हो सकता है।
दोहा – 7
तिमिर गया रवि देखते कुमति गयी गुरु ज्ञान सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान।
अर्थ : सूर्य दिखाई देने पर अंधकार का नाश हो जाता है। कुविचार का अंत गुरु के ज्ञान से संभव है। सुबुद्धि का लोप लोभ के कारण होता है और भक्ति का नाश अभिमान के कारण होता है।
दोहा – 8
कबीर मंदिर लाख का जरिया हीरा लाल दिबस चारि का पेखना, विनशि जायेगा काल।
अर्थ : कबीर के अनुसार शरीर लाह कर मंदिर है जिसमे हीरा और लाल जड़े गये हैं। किंतु यह नश्वर शरीर चार दिनों का खेल है कारण यह शीघ्र काल के गाल में समा जायेगा।
दोहा – 9
कबीर यह संसार है जैसे सेमल फूल दिन दस के व्यवहार मे, झूठे रंग ना फूल।
अर्थ : यह संसार सेमल के फूल सदृश्य दस दिनों के व्यवहार में रंग गायव और मुरझा जाता है। संसार नश्वर है। हमें इसके आकर्षण में जीवन को नहीं गॅंवाना चाहिये।
दोहा – 10
कबीर पानी हौज का, देखत गया बिलाय यैसे ही जीव जायेगा काल जो पंहुचै आय।
अर्थ : जिस प्रकार टंकी का जल देखते-दखते सूख जाता है उसी तरह काल के आने पर शरीर से जीवन का पलायन हो जाता है। अतः इस क्षण भंगुर जीवन का मोह उचित नहीं है।
दोहा – 11
मन मक्का दिल द्वारिका, काया कासी जान दस द्वारै का देहरा, तामै ज्योति पीछान।
अर्थ : अपने मन को मक्का,दिल को द्वारिका और शरीर को काशी जानो। यह शरीर दस द्वारों का है जिसके अंतरतम हृदय में प्रभु का वास है।
दोहा – 12
तीरथ वरत करि जग मुआ, जुरै पानि नहाय राम नाम जाने बिना, काल जुगन जुग खाय।
अर्थ : र्तीथ,व्रत एंव स्नान करते-करते संसार मृत प्राय हे किंतु बिना राम का नाम जाने ही। जन्म एंव मृत्यु का चक्र निरंतर जारी है। बिना ईश्वर को जाने मुक्ति संभव नहीं।
दोहा – 13
जबहि राम हृदय धरा, भया पाप का नाश मानो चिंगी आग की, परी पुराने घास।
अर्थ : ज्योंही हृदय में राम को धारन किया, समस्त पापों का समूल नाश होगया जैसे की आग की एक चिंगारी से पुराने सूखे घास जलकर समाप्त हो जाते हैं।
दोहा – 14
सब बन तो चंदन नहीं, सूरा के दल नाहि सब समुंद्र मोती नहीं, यूॅं साधु जग माहि।
अर्थ : दुनिया के सभी जंगलों में चंदन नहीं होते, वीरों का दल नहीं होता। सभी समुद्रों में मोती नहीं पाये जाते। इसी प्रकार संसार के सभी साधु ज्ञानी नहीं होते।
दोहा – 15
वेद पुरान सब झूठ हैं, उसमे देखा पोल अनुभव की है बात कबीरा, घट पर्दा देखा खोल।
अर्थ : वेद पुराण आदि धर्मग्रंथ झूठ के पुलिन्दा हैं। कबीर ने उसमे धर्म के पोल देखे हैं। कबीर ने अनुभव किया है। अपने हृदय के परदे को हटा कर देखने से साक्षात ईश्वर का दर्शन संभव हैं।
दोहा – 16
माया कू माया मिले कर कर लम्बे हाथ निसप्रेही निरधार को गाहक दीनानाथ।
अर्थ : एक संसारी धनी जब दूसरे धनी से मिलता है तो वह प्रेम भरी बातें करता है पर निष्कामी और पुण्यात्मा से केवल परमात्मा ही प्रेम करता है।
दोहा – 17
कबीर मुख सोई भला, जो मुख निकसै राम जा मुख राम ना निकसै, ता मुख है किस काम।
अर्थ : कबीर के अनुसार जिस मुख से राम का नाम लिया जाता है-वह मुख अच्छा है जिस मुख से राम नाम का उच्चारण नहीं किया जाता है-वह मुख व्यर्थ है।
दोहा – 18
सांचै कोई ना पतियाय,झूठे जग पतियाय गली गली गोरस फिरै, मदिरा बैठ बिकाय।
अर्थ : सत्य पर कोई विश्वास नहीं करता और झूठ पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। गाय के दूध को गली -गली में धूम कर बेचना पड़ता है पर मदिरा एक जगह बैंठ कर हीं बिक जाता है।
अर्थ : भादों में सभी नदी उफान पर रहती है किंतु जेठ में जो नदी भरी हुई हो-उसी का महत्व है। भक्ति भाव की तुलना भादो के नदी से नहीं जेठ मास की नदी से करनी चाहिये। दिखावटी भक्ति को सच्चा नहीं कहा जा सकता।
दोहा – 20
कबीर गर्व ना कीजिये, रंक ना हसिये कोई अजहु नाव समूद्र में, ना जानों क्या होई।
अर्थ : मनुष्य का अपने धन का अभिमान नहीं करना चाहिये। किसीकी निर्धनता का मजाक नहीं करना चाहिये। अभी जीवन मझधार में हैं। कौन जाने कब क्या हो जायेगा। समय बहुत बलबान है।
दोहा – 21
अपना तो कोई नहीं,देखी ठोकि बजायी अपना अपना क्या करि मोह भरम लपटायी।
अर्थ : बहुत प्रयत्न पूर्वक देखने के बाद भी संसार में अपना कोई नहीं है। लोग माया मोह के भ्रम में संबंधों को अपना बोलते हैं। सभी सांसारिक संबंध क्षणिक होते हैं।
दोहा – 22
भक्ति भक्ति सब कोइ कहे भक्ति ना जाने भेद पूरन भक्ति जब मिले, कृपा करै गुरु देव।
अर्थ : सभी व्यक्ति भक्ति की चर्चा करते हैं किंतु भक्ति में कोई भेदभाव नहीं होता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त होती है जब गुरुदेव हमपर कृपा करते हैं।